उस ताख पर लिपटी कालिख
मन का उजाला लिए हंसती थी
मैंने महलों को तो जाने कितनी दफ़ा
रोते हुए देखा है।
खुदा उन घरों में बसता है,
जहाँ मोहब्बत रहती है।
मैंने सर परस्तों को जाने कितनी दफ़ा
नफरत करते हुए देखा है।
बेजा हुई हर वो धड़कन
जिसने इंसानियत से मुंह है मोड़ा
मैंने फरिश्तों को जाने कितनी दफ़ा
क़त्ल करते हुए देखा है।
रूह को सुकून मिल जाता है
बस एक बार के इंसान होने से
मैंने जानवरों के दिल में
इंसान बनते हुए देखा है।
मन का उजाला लिए हंसती थी
मैंने महलों को तो जाने कितनी दफ़ा
रोते हुए देखा है।
खुदा उन घरों में बसता है,
जहाँ मोहब्बत रहती है।
मैंने सर परस्तों को जाने कितनी दफ़ा
नफरत करते हुए देखा है।
बेजा हुई हर वो धड़कन
जिसने इंसानियत से मुंह है मोड़ा
मैंने फरिश्तों को जाने कितनी दफ़ा
क़त्ल करते हुए देखा है।
रूह को सुकून मिल जाता है
बस एक बार के इंसान होने से
मैंने जानवरों के दिल में
इंसान बनते हुए देखा है।
-Snehil Srivastava
Picture credit: www.wakingtimes.com
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© Snehil Srivastava
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