Path to humanity

Path to humanity
We cannot despair of humanity, since we ourselves are human beings. (Albert Einstein)

Monday, February 20, 2017

'तुम्हारे दो लफ्ज़'
That you say...


तुम्हारे दो लफ्ज़...
दो लफ्ज़ ही काफी हैं,
तुम्हे सुनने को, तुमसे कहने को
बड़ी बड़ी बातों में भला क्या रखा है?
सुकून मिल जाता है हर ग़म की परछाई में
तुम्हारे दो लफ़्ज़ों में दुआ सा असर दिखता है।
कांसा मेरा टूट गया, मोहब्बत के बोझ में आकर
तुम्हारे दो लफ़्ज़ों से मेरा अक्स जुड़ा लगता है।
मैंने नहीं देखा 'उसे' कहीं, कभी इस जहां में
तुम्हारे दो लफ़्ज़ों में ही मुझे मेरा खुदा दिखा करता है।
दो लफ्ज़ ही काफी हैं, मुझे मेरे इत्तेफ़ाक़ से मिलाने को
तुम हो तो ये लफ्ज़ हैं, मुझसे इत्तेफ़ाक़ कहा करता है।


-Snehil Srivastava
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© Snehil Srivastava

Saturday, December 31, 2016

'सारी दुनिया की भीड़ में मैं अकेला बंजारा'
Lonely Traveller

सारी दुनिया की भीड़ में
मैं अकेला बंजारा।
क्षितिज से मिले है समंदर
पर जिसका पानी खारा-खारा
कि जैसे न नसीब हो
डूबते को तिनके का भी सहारा
और फिर आसमान में
टूटता, गिरता फिर उभरता एक तारा
सारी दुनिया की भीड़ में
मैं अकेला बंजारा।

जिसे नहीं है रूह की समझ
वही करता रहता है मेरा तुम्हारा
मुझे इंसानियत में खुदा मिल गया
मैं भूल गया क्या होता है खसारा
निकल पड़ा हूँ लम्बे सफर की तलाश में
छोड़ छाड़ कर ग़मों का पिटारा
तैयार हूँ मिलने को आगे आने वाली हर एक शिकस्त से
पर सच जानों मैं आज तक नहीं हूँ हारा
सारी दुनिया की भीड़ में
मैं अकेला बंजारा।

वक़्त को मुट्ठी में बांध लेने की भूल की थी कभी मैंने
और नहीं समझा था वक़्त का हसीं इशारा
कि ये ठहरा है, हम चलते जा रहे कहीं अँधेरे में
देखने को सुबह का उजला नज़ारा
नासमझ हैं, उजाला तो दिल में छुपा है
बाहर के उजाले से क्या कभी होता है गुज़ारा?
सोना पाकर मिट्टी खोकर, ऊपर उठकर जमीं से जुदा होकर
रह जायेगा इंसान गरीबअमीर, बेचारा
सारी दुनिया की भीड़ में
मैं अकेला बंजारा।

आखिरी हुआ है जो पहला हुआ था
किसको मिला है सबकुछ, और सारा
माँ के तो आंचल में जन्नत है मिलती
आखिरी भी पहला-सा लगता है प्यारा
जो भी हुआ है, बस ठीक ही हुआ है
हँसते ही जाओ, रोक लो अश्कों की धारा
कर दो खुद को अर्पण उस एक ही दिशा में
यही सत्य तर्पण, यही सत्य संसारा
सारी दुनिया की भीड़ में
मैं अकेला बंजारा।


-Snehil Srivastava
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'आज फिर तुम वही, आज मैं भी वही'
Its a new Dawn

आज फिर सुबह हुई
आज फिर तुम वही
आज मैं भी वही
लेकिन....
बातें हैं कुछ...अनकही
तुमसे होंगी अब नयी खुशियां
होंगी मेरी आंखें नम कभी कभी
तुम्ही लाओगी मुझमें ठहराव
जैसे ये नदी कभी बही ही नहीं
या फिर एक अनवरत पल
जो तुमने अबतक पाया नहीं
तुम्हारा मुस्कुराना, प्यार से नाराज़ हो जाना
शायद इसी को कहते हैं ज़िन्दगी।
आज फिर सुबह हुई
आज फिर तुम वही
आज मैं भी वही
लेकिन....


-Snehil Srivastava
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'तू क्या सोचता है हमेशा रहेगा?'
Till the time comes...

जो मेहनत करी, तेरा पेशा रहेगा
ना रेशम सही, तेरा रेशा रहेगा
अभी कर ले पूरे, सभी काम अपने
तू क्या सोचता है हमेशा रहेगा?

सच्चा तू बन जा, कच्चा सा बनकर
अच्छा तू बन जा, अच्छा सा बनकर
बड़े होने में अब कोई अच्छाई नहीं है
तू छोटा ही बन जा बच्चा सा बनकर
क्या चाहा तूने, क्या हुआ साथ तेरे
छोड़कर चले गए, सारे अपने तेरे
तू ही रुका था इस लम्बे सफर में
रात बीती लम्बी हुए फिर सवेरे
अब इतना सहा है, फिर कितना सहेगा?
अँधेरा हुआ है, सवेरा भी होगा

तू चलना शुरू कर पुराना भुलाकर
तू क्यों सोचता है सवेरा ना होगा?
अभी कर ले पूरे, सभी काम अपने
तू क्या सोचता है हमेशा रहेगा?

                  -Inspired by a poem (Sri Ashok Chakradhar)

-Snehil Srivastava
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'तुमसे मिलकर'
Lost Journey, Past Journey

जुदा हूँ मैं अब इस जहाँ के रंजोगम से
यहाँ लोग हँसते हैं, रोते है, चले जाते हैं।

मेरा सामना बस एक बार ज़िन्दगी से हुआ है
सच जानो, जिंदगी से मिलने वाले ही जिंदगी को जान पाते हैं।

तुमसे मिलकर मैंने हंसना सीखा, रोना भूल ही गया
अब गम नहीं ग़र तेरे मेरे रास्ते बदल जाते हैं।

मंज़िल एक ही है ये तू जानता है, पता मुझे भी है
बस बीते सफर के कुछ पल याद रह जाते हैं।


-Snehil Srivastava
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Monday, November 7, 2016

स्थिर गति
Stream of life

कितनी रफ़्तार है ज़िन्दगी में
किन्तु समय स्थिर, मौन जैसे अनंत व्योम
और ये एहसास कितना सरल है
जैसे यथार्थ और यथार्थ का विलोम
उन दूर चमकते तारों से पूछा
इन घटाओं से, बहती हवाओं से, इन बहारों से पूछा
कौन है तुम्हारा खेवैया?
क्या तुम्हारी भी होती है ज़िन्दगी?
तारों ने और भी चमककर
घटाओं ने जोरों से घुमड़कर
हवाओं ने बहकर सरसारकर
बहारों ने हमेशा की तरह मुस्कुराकर
कहा-
ये वो है जिसका कोई रूप नहीं
बिन जिसके हमारा, शून्य जितना भी स्वरुप नहीं
वही प्रथम है, वही अंतिम भी है, वही सर्वाधार है
जो अविस्मरणीय भूत है, जो अंत रुपी भविष्य है
जिसके कारण ही वर्तमान साकार है
यही तो ज़िन्दगी है, यही इसकी रफ़्तार है
जिसके बिना जिंदगी एक मझधार है
इस भव सागर का खेवैया भी वही है
वही पतवार है, नैया भी वही है
और हम केवल कठपुतलियां
तो क्या कोई और; गतिमान है,
अतिरिक्त सर्वस्व, स्थिर है ज्ञान है?

-Snehil Srivastava
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Sunday, November 6, 2016

हर रात के बाद...
When the night passes

बहती भीनी ठण्डी हवा,
जब रात के तारों संग
सरकते हुए मेरे तकिये के नीचे
आती है, तो यूँ लगता है
कि प्रकृति की शुचिता
मानवीकृत होकर
मुझे मेरे अधूरे सपनों से
मिला देने चाहती है।
सुबह का ये नीला आकाश,
कलरव करते पंछी,
झूमते उमड़ते वृक्ष; मुझे अपने रंगों में
भिगो देने को आतुर हैं
कि मेरी अस्मिता
मुझमें आत्मसात होकर
मुझे मेरे खोये अस्तित्व से
रूबरू कर देना चाहती है।

-Snehil Srivastava
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आज मुझे खुदा मिला
I met Him today

आज मुझे खुदा मिला,
रंजोग़म में बैठा - गुमसुम सा खुदा
उसकी आँखों का पानी
उसके कांपते हाथ
उसका उतरा चेहरा
उसकी थरथराती आवाज़,
जाने थी किस वजह?
पर आज मुझे खुदा मिला।
मेरे सवालों पर,
उसने गहरी ख़ामोशी इख्तियार कर ली।
मेरे कुरेदने पर बस-
उसकी आँखों का पानी,
गालों के रास्ते ढुलककर
सर्द होने लगा।
और आज मुझे खुदा मिला।
उसका यूँ ग़मगीन होना
उसके खुदा होने पर
कई सवाल खड़े करता है।
कि क्या वो वाकई खुदा है?
क्या वो इंसानियत से इतर हुआ है?
या फिर उसे 'कुछ तो' एहसास हुआ है।
क्या? वो अपने खुदा से क्यों न पूछ ले?
शायद वही यह कह सके-
"आज मुझे खुदा मिला।"

-Snehil Srivastava
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पहला प्रश्न, अंतिम उत्तर
Beginning of an end!

इस तरह या उस तरह
न जाने फिर किस तरह?
तारा टूट गया,
हर अपना रूठ गया।
मनाया मैंने,
उस टूटे तारे को
सुबकते-बिखरते,
उस प्यारे को
पर वो
सपना सा, तारा बनकर टूट गया।
क्या सचमुच वो एक तारा था?
एकलौता जीवन जो हारा था,
अपनी मध्यम रौशनी को भूले
क्या ऐसा अस्तित्व वो सारा था।
पर वो तारा था,
रूठ गया, टूट गया।
सारे अपने मुझमें मिलकर
मुझसा बनना क्यों चाहें हैं?
क्या मैं भी खुद से रूठा हूँ
फिर वो तारे मुझको क्यों मनाये हैं?
पहला प्रश्न, अंतिम उत्तर-
इस तरह या उस तरह
न जाने फिर किस तरह!

-Snehil Srivastava
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© Snehil Srivastava

Tuesday, August 30, 2016

वो शाम
That evening which never happened!

आज वो शाम फिर आई है
उदासी संगिनी है जिसकी
और जिसके मायूस चेहरे पर
हंसी, बीती हुई सी बात लगती है
हाँ ये वही शाम है जिसका तन
अपने होने के एहसास से
भरमा जाता है, तो कभी शरमा भी जाता है
काँपते होठों पर इस शाम ने
अनकहे एहसासों को जज़्ब कर रखा है
जो आँखों के मोती बनकर बस
ढुलके जा रहे हैं। नरम उँगलियों पर
इसी शाम ने उस छुअन को महसूस किया था।
और तब ये शाम
जाने क्यों हंस पड़ी थी।
आज वो शाम फिर आई है।
आज वो शाम...फिर न जाने के लिए।
-Snehil Srivastava
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© Snehil Srivastava