थरथरा उठती थी ये धरा, क्षुब्ध था विश्वास तब
बिन कहे मेरा ह्रदय था अश्रु सिंचित पौध जब
सारा दिवस बस यूँ ही बीता प्रणय की मीठी आस में
ताकता था अर्ध मानव उल्लास दिशा में एकटक
तुमको है सुनना, तुमसे है कहना - हर अँधेरी रात्रि को
चक्षुओं की भाषा से घुलकर जैसे बना कोई चित्र हो
भोर में मीठी चिड़ियों की बोली सुनकर ऐसा है लगा
देव भूमि से उतरकर जैसे, गीत ये विचित्र हो|
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© Snehil Srivastava
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