कुछ उसका था कुछ मेरा था
जहां में ना जाने कितना अँधेरा था
हर ओर की हवा बस एक ओर बहती थी
पहुचनें को जहाँ लम्बा पहरा था
घुट घुट के जीना है मौत पर भारी
उस शख्स ने देखा एक ख्वाब सुनहरा था
पंछी उड़ गए सारे तिनकों के घरौंदों से
चहकता था जो कभी खाली वो बसेरा था
रूह तक उतर जाए ऐसी इबादत थी
खुदा जाने क्यों अब भी बहरा था
मैं भी शरीफ़ था अपने गुमान में
फ़रिश्ता था वो या कोई और चेहरा था
पानी बह गया सारा आँखों के रस्ते से
खून को देखा वो अब भी ठहरा था
कुछ उसका था कुछ मेरा था
जहां में ना जाने कितना अँधेरा था
-Snehil Srivastava
-Snehil Srivastava
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© Snehil Srivastava
Awsm
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