एक तूफ़ान हुआ करता था यादों के गहरे समन्दर में
पर टूटी कश्तियाँ किनारे तक पहुँच जाया करती थीं
थपेड़े लगा करते थे हर पल, हर छिन
वो उनसे भी गहरी, गहरी चोटें खाया करती थीं
पर टूटी कश्तियाँ किनारे तक पहुँच जाया करती थीं
आसमान से गिरती बिजलियाँ उन्हें दर्द दिया करती थीं
वो कश्तियों के टूटे शरीरों को और तपाया करती थीं
पर टूटी कश्तियाँ किनारे तक पहुँच जाया करती थीं
एक रोज़ गहरा समन्दर कश्तियों से बोला- तुम हार जाओगी
वो उसकी इन्हीं बातों पर बस मुस्कुराया करती थीं
पर टूटी कश्तियाँ किनारे तक पहुँच जाया करती थीं
उनका 'वक़्त' साथी था, हर वक़्त साथी था
वो उसकी खुली बाहों में सो जाया करती थीं
पर टूटी कश्तियाँ किनारे तक पहुँच जाया करती थीं
जज़्बा था उनमें बढ़ने का, वो रुका नहीं करती थीं
झुलसे हुए पतवारों को बेख़ौफ़ चलाया करती थीं
पर टूटी कश्तियाँ किनारे तक पहुँच जाया करती थीं
हाँ दर्द था, रिसता खून उनका सर्द था
वो उन्हें देख देखकर जाने कहाँ खो जाया करती थीं
पर टूटी कश्तियाँ किनारे तक पहुँच जाया करती थीं
हर चोट, हर दर्द को उन्हें सहना ही था
इसीलिए वो अपना लक्ष्य पाया करती थीं
और टूटी कश्तियाँ किनारे तक पहुँच जाया करती थीं
-Snehil Srivastava
Picture credit: www.miriadna.com
(Note- No part of this post may be published reproduced or stored in a retrieval system in any forms or by any means without the prior permission of the author.)
© Snehil Srivastava
No comments:
Post a Comment