जब सुकून की आहट धीमे से सुनाई दे
और रह रह के आँखों से पानी के झरने दिखायी दे
तो ये ना समझना कि मन उदास है
जिस्म ग़र हो दूर भी, तो रूह तेरे पास है
यूँ एकाकी बैठे हुए, सौ लफ्ज़ कौंध जाते हैं
मेरे दिल में हसीं ख्वाब आ आकर लौट जाते हैं
तुझे देखा था तब मैंने जब दूर तलक रात थी
उजाले सी खुश्बू लिए तेरी कही हर बात थी
अब इस खुश्बू की मेहक सुकून तो नहीं देती है
इस सर्द हुए मौसम में दिल को जला देती है
जो हुआ सो हुआ मुझे इसपर कोई ताप नहीं
दिल ही जला मन तो नहीं, पहला है जनम सात नहीं
अब क्या करूँ, क्या ना करूँ सोचता हूँ तो हंस लेता हूँ
इस कुहासे से भरी रात को अपना सा बना लेता हूँ
ये रात मेरी हमराज़ क्यूँ है अब तक ना समझ पाया मैं
ख़ुशी ना बाटें ना ही सही, ये रात मेरा हर दर्द सुने
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© Snehil Srivastava
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