वास्तविकताओं से परे रहना सरल होता है, परन्तु ये सरलता सामान्यतया क्षणिक ही हुआ करती है और जो भी कोई इन खोयी हुई सच्चाईयों का पीछा करता है उसकी राह इतनी भी सरल नहीं होती। कभी कभी पीछा करने वाला कहीं खो जाता है। कहाँ, ये जानना थोड़ा सा मुश्किल है। जितना सारगर्भिक उन वास्तविकताओं का सामने आना है उतना ही उद्देश्यपूर्ण उन्हें सामने लाने वाले का सम्मान भी है।
सम्मान एक ऐसा शब्द है जो सत्य के साथ गुथा सा हुआ है। अगर इन्हें एक दुसरे का पूरक कहा जाये तो शायद गलत ना होगा। हमारी ऐसी अवधारणा बनी हुई है कि हम सच का सम्मान करना ही नहीं चाहते। इसकी एक बड़ी वजह खुद में रोपित असत्य की पौध है जो आज एक बड़े वृक्ष में तब्दील हो चुकी है और जिसे सहारा मिला है खुद के भंगुर वजूद की तत्परता का। यहाँ एक बात ध्यान में रखनी चाहिए कि ये कोई आज की आधुनिक शैली नहीं है जो हमारे जीवन में कहीं से बस यूँही आ गयी है बल्कि ये सदा से चली आ रही स्वयं को श्रेष्ठ साबित करने की अंधी दौड़ है जिसे जीतने के लिए कुछ भी क्यूँ ना करना पड़े।
हमें किसी घटना को, किसी बात को बस यूँ ही सत्य/ असत्य की श्रेणी में नहीं रख देना चाहिए। उसके सभी तत्वों को निश्छल भाव से ध्यानपूर्वक देखना एक महत्वपूर्ण कदम है। स्वयं को बिना किसी भी पक्षपात के स्थिर रखना अत्यंत आवश्यक होता है। अन्यथा वास्तविकता खोती चली जाती है। उलझनों को सुलझाना एक संयम का काम है जिसमे इच्छा के विपरीत समय थोड़ा अधिक लग सकता है परन्तु परिणाम सदैव सुन्दर होता है। यदि हमारे लिए नहीं तो दूसरे के लिए। अंततः हमारा ध्येय भी तो सत्य को पाना ही है ना।
आप इसे मोड़ और मरोड़ सकते हैं… आप इसका बुरा और गलत प्रयोग कर सकते हैं… लेकिन ईश्वर भी सत्य को बदल नहीं सकते हैं। ~ माइकल लेवी
You can bend it and twist it… You can misuse and abuse it… But even God cannot change the Truth. ~ Micheal Levy
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© Snehil Srivastava
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