पुराने समय से एक अवधारणा चली आ रही है कि जो जितना करुणाशील है, जितना सहिष्णु है; समाज उसे पीछे धकेल देना चाहता है अपनी रीतियों से, अपनी कुरीतियों से परन्तु यदि इतिहास के पन्नो को पलट कर एक गहरी नज़र डालें तो हम पाएंगे, ये सारी दानवी शक्तियां कभी सफल न हो सकी हैं. हाँ ये ज़रूर है इन्हें गाहे बगाहे आंशिक सफलता ज़रूर मिल जाती है.
इस बात की पुष्टि के लिए बेटी से बेहतर उदहारण कुछ हो ही नही सकता. बेटी जो कभी मातृत्व की छाँव देती हैं तो कभी बहन बनकर एक अनुपम साथी होती है. भार्या होती है तो जीवन के हर विष को खुद पी लेना चाहती है और यदि मित्र बनती है तो हर पग को सचेत करती है. और पुरुष प्रधान समाज हर स्तर पर स्वयं को पहली सीढ़ी पर खड़ा देखना है. एक क्षण को कल्पना करते हैं- बेटी विहीन विश्व की. कुछ भी देख सकें हैं आप सभी? विश्व का सृजन उसका अस्तित्व एक अंधकारमय अनुभूति देता है. इस बात की कल्पना से ही मन सिहर उठता है.
यदि ऐसा है तो फिर क्यों बेटी का सम्मान नहीं किया जाता। नारीत्व एक शक्ति है समाज की, फिर क्यों समाज उस पर घिनौने कृत्यों के पत्थरों से वार करता है. उसे चोट पहुंचता है. उसे नष्ट करता है.
सबसे पहला- जन्म.
बहुधा सुनने में आता है की लड़की हुई तो कम ख़ुशी हुई, लड़का होता तो बात कुछ और होती. आखिर घर का चिराग होता है लड़का. तो क्या बेटियां वो काम नहीं कर सकतीं जो एक लड़का करता है या कर सकता है? बिलकुल कर सकती हैं. आखिर कर ही तो रही हैं. शिक्षा, विज्ञान, खेलकूद, राजनीति, सेना, अंतरिक्ष. सभी मोर्चो पर बेटियां कहीं बेहतर सभीत हुई हैं. इसलिए बेटी के जन्म पर सबसे अधिक खुश होना होगा हमें तभी एक संपूर्ण विश्व की परिकल्पना संभव होगी.
सम्मान का दूसरा रूप है- सामजिक स्तर. हम कितने भी आधुनिक क्यों ना हो जाएं परन्तु जब बेटियों को समाज में बराबर की हिस्सेदारी की बात आती है तो लोग मौन हो जाते हैं. कुप्रथाओं के बानिग हर संभव प्रयास किया जाता है कि बेटियां सदेव बेटों से कमतर रहे. अरे उन्हें भी समान अधिकार है कदम से कदम मिलाकर चलने का, अपना शीष ऊँचा रखने का.
तीसरा और सबसे महत्त्वपूर्ण सम्मान एक बेटी का तभी हो सकता है जब उसे बेटी
यदि बेटी माँ दुर्गा के रूप में सृजन की पोषक हैं तो यही रूप समाज के राक्षसों को मृत्यु भी प्रदान कर सकता है.
(Note- No part of this post may be published, reproduced or stored in a retrieval system in any form or by any means without the prior permission of the author.)
© Snehil Srivastava
No comments:
Post a Comment