ये याद है जो तेरी, मुझमें बसी सी लगती है
जब हो जाता हूँ अशब्द, बंद आँखों से ये कहती है
दिखती है तू हंसती हुई, मुझसे बाँतें करती हुई
फिर ना जाने क्यूँ, मुझसे दूर तू रहती है
जब दूरी थम सी जाती है, रातें सर्द हो जाती हैं
नर्म हाथों की उस गर्मी से, मुझको सुकून तू देती है
उन काली खाली रातों से करनी है मुझको दोस्ती
अकेले चलते इन राहों पे, सांसें मेरी भी थकती हैं
ये याद है जो तेरी, मुझमें बसी सी लगती है
जब हो जाता हूँ अशब्द, बंद आँखों से ये कहती है
क्यों नहीं हो तुम मेरे साथ, क्या जानो तुम इसका एहसास
बस याद यही है तेरी, जो मुझसे बाँतें करती है
जब भीड़ भरी इस दुनिया में, मैं अकेला ही रहता हूँ
ये याद वहां भी आकर, मुझसे क्यूँ झगड़ती है
है दूर बहुत दूर, फिर क्यूँ करीब ही लगती है
खुद में शायद है जज़्ब किया, फिर भी अलग ही रहती है
अब रहना है उस सीमा में, वरना टूट सा जाऊंगा
टूट के जुड़ना मुश्किल है, स्नेहिल से वो कहती है
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