इन श्रृंखलाओं से व्यथित हूँ मैं
आस की, प्रहास की-
हर वक़्त मिटटी सांस की
सोचता हूँ अब रख छोड़ू
अपने तरकश के सारे तीर
तोड़ दूँ इन प्रभंजनो को
सारी वर्जनाओं को,
इन लहरों में उठती गिरती कामनाओं को
गहरी नींद से यकायक उठना
अब कोमल नहीं लगता
तब बात और थी-
जब मुस्कुरा उठता था
उस चमक को देखकर
उन शब्दों का मखमली एहसास
कानों में शहद की भांति घुला हुआ है
जो अब रक्तिम हो चला है
एक टीस सी है-
गहरी, बहुत गहरी
ये युद्ध नीति किसी काम की नहीं
स्वयं से लड़ना इतना आसन भी नहीं
सहस्त्र शब्दों के भंवर में फंसा हुआ
ये अशस्त्र शब्द, डरा सहमा सा
टकटकी बांधें शुन्य की ओर
सत्य की छाँव टटोल रहा है
वास्तविकता को झुठलाता
इसका ह्रदय स्वयं को तोल रहा है
अंधकार में बढ़ना, रौशनी के बिना
अनवरत अशांत,
विकल विफलता का द्योतक है
धैर्यशील मनुष्य की भांति
ये शब्द अपने यथार्थ पाना चाहता है
अंत तक ही सही
Commendable Poetry!!
ReplyDeleteThanks Vikram...
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