Path to humanity

Path to humanity
We cannot despair of humanity, since we ourselves are human beings. (Albert Einstein)

Saturday, September 25, 2010

स्मृतियाँ..........

स्मृतियाँ, 
कभी रुलाती हैं
तो कभी गुदगुदाती हैं
कभी मासूम बच्चा बन, 
छोटा-सा बालक बन 
अपनी तोतली बोली में 
मन की बातें कह जाती हैं !

स्मृतियाँ,
दिलाती हैं याद 
कभी माँ का दुलार, 
तो कभी पिता का प्यार, 
कभी दादी माँ की
और कभी नानी माँ की 
कहानी बनकर 
ले जाती हैं 
परियों के लोक,
जहाँ दिखाई देते हैं 
चाँद और सितारे, 
जो लगते हैं मन को 
मोहक और प्यारे, 
दिखाई देते हैं वहाँ
रंग-बिरंगे फूल 
जहाँ नहीं होती, 
उदासी की धूल 
फूल अपनी सुगंध 
बिखेरते हैं चारों ओर, 
औरों को भी सिखाते हैं 
सुगंध फैलाना, 
मनभर खुशबू लुटाना 
सबको हँसाना 
और गुदगुदाना 
तन के साथ-साथ 
मन को भी सुंदर बनाना !

स्मृतियाँ, 
कभी ले जाती हैं 
उस नन्हे संसार में 
जहाँ प्यारी-सी 
दुलारी-सी गुड़िया है 
उसका छोटा-सा घर है !
और है 
भरा-पूरा परिवार 
नहीं है दुख की कहीं छाया, 
पीड़ा की कोई भी लहर 
यहाँ-वहाँ कहीं पर भी 
कभी दिखाई नहीं देती !

स्मृतियाँ,
जब ले जाती हैं 
भाई-बहिनों के बीच 
जहाँ खेल है,तालमेल है 
तो कभी-कभी 
बड़ा ही घालमेल है !

स्मृतियाँ,
ले जाती हैं 
दोस्तों के बीच 
जहाँ पहुँचकर 
देती हैं अनायास
ऊँची उड़ान मन-पतंग को, 
देती हैं अछोर ऊँचाइयाँ, 
तो कभी कटी पतंग-सी 
देती हैं निराशा मन को, 
कभी उड़नखटोले में
सैर करातीं हैं,
कभी ले जाती हैं
अलौकिक दुनिया में
जगाती हैं मन में आशा 
रखती हैं सदैव दूर दुराशा !

स्मृतियाँ ,
खो जाती हैं 
भीड़ में बच्चे की तरह 
जब मिलती हैं 
तो माँ की तरह 
सहलाती हैं,दुलारती हैं 
और रात को 
नींद के झूले में 
मीठे स्वर में 
लोरी सुनाती हैं 
ले जाती हैं 
कल्पना के लोक 
जहाँ मन रहता है 
कटुता से दूर,बहुत दूर, 
मन बजाता है 
खुशी का संतूर !
दुःख की अनुभूतियाँ 
मन में नहीं समाती हैं; 
सुख की कोयल 
कभी गीत गाती है 
तो कभी 
मधुर-मधुर स्वर में 
गुनगुनाती हैं,
और कभी
पंचम स्वर में
जीवन का 
मधुर राग सुनाती हैं





द्वारा- डॉ. मीना अग्रवाल

देश.........

वजन करने की मशीन स्टेशन पर दिखी जब,
कितना भारी हुआ हूँ जानने की इच्छा हुई तब.
सिक्का डाला तो रिज़ल्ट निकलकर सामने आया,
जिसे पढ़कर मेरा मन थोड़ा सा चकराया.
सामने साफ दिख रहा था कि मैं हो गया हूँ भारी,
नीचे लिखा था- "आपके व्यक्तित्व की पहचान है ईमानदारी.
दोनो सच है इस पर नही हो रहा था विश्वास,
क्यूंकी दोनो बातों में था एक अजीब विरोधाभास.
भार के बारे में अब पुराना चलन नहीं रहा,
ईमानदारी में भई आजकल वजन नहीं रहा.
मंहगाई-मिलावट के जमाने में पौष्टिक खाना पाने से रहे,
इस कारण सिर्फ़ खाना खाकर तो हम मुटाने से रहे.
मंहगाई तो आजकल आसमान को छुने लगी है,
पानी भी तो बोतल बंद होकर मिलने लगी है.
शायद ये भी हो कल को आसमान में सूरज भी ना उगे,
कोई कंपनी उसे खरीद ले और धूप मुनाफ़े पे बेचने लगे.
यह सब सोच कर ये लगा यह मशीन मज़ाक कर रही है,
या फिर यह भी एक आदमी की तरह बात कर रही है.
आदमी रूपी वाइरस इसके अंदर प्रवेश कर गया है,
इसीलिए अब ये भी चापलूसी करना सीख गया है
इसबार मशीन को चेक करने के लिए सिक्का डाला,
पर अबकी तो उसने चमत्कार ही सामने निकाला,
मेरा वजन तो फिर से उतना ही दिखा था,
पर नीचे में तो कुछ अजब ही लिखा था.
लिखा था- "आप ऊँचे विचार वाले सुखी इंसान हैं"
मैं सोचा अजीब गोरखधंधा है कैसा व्यंग्यबाण है.
विचार ऊँचे होने से भला आज कौन सुखी होता है,
सदविचारी तो आज हर पल ही दुखी होता है.
बुद्ध महावीर के विचार अब किसके मन में पलते हैं,
गाँधीजी तो आजकल सिर्फ़ नोटों पर ही चलते हैं.
ऊँचा तो अब सिर्फ़ बैंक बॅलेन्स ही होता है,
नीतिशास्त्र तो किसी कोने में दुबक कर रोता है.
सदविचार तो आजकल कोई पढ़ने से रहा,
जिसने पढ़ लिया उसका वजन बढ़ने से रहा.
आइए आपको अब सामाजिक वजन बढ़ने का राज बताते हैं,
जब हम दूसरों पे आश्रित होते हैं लदते हैं तभी मूटाते हैं.
नेता जनता को लूटते हैं और वजन बढ़ाते हैं,
साधु भक्तों को काटते हैं अपना भार बढ़ाते हैं.
बड़े साहेब जूनियर्स को काम सरकाते हैं इसलिए भारी कहलाते हैं,
कर्मचारी अफ़सर पर काम टरकाते हैं इसलिए भारी माने जाते हैं.
नहीं होता आजकल वजन किसी ईमानदार सदविचारी का,
हलकापन है नतीजा आज मेहनत, ईमान और लाचारी का

By- Deepak