Path to humanity

Path to humanity
We cannot despair of humanity, since we ourselves are human beings. (Albert Einstein)

Saturday, October 15, 2011

"...म्हारे को म्हारे सासुरे भेज दो..."


मुझको मेरे ससुराल भेज दो
वहां ये मेरा हाल भेज दो
माँ का रोना अब देखा नहीं जाता
पिता का खिलौना अब टेका नहीं जाता
मुझे अब उन दूजे फूलों की सेज दो
मुझको मेरे ससुराल भेज दो


भैया से लड़ाई अब याद आती है
गुड्डे गुड़ियों की सगाई अब याद आती है
देखो भैया मुझे फिर रुलाता है
फिर प्यार से छुटकी बुलाता है
इन सारी बातों को कहीं सहेज दो
मुझको मेरे ससुराल भेज दो


जब मैं मेरे ससुराल जाऊँगी
इन बातों को ना भूल पाऊँगी
सबकी मुझको याद आएगी
सोने पर भी नींद ना आएगी
माँ...! तुम मुझे अपना सा तेज दो
मुझको मेरे ससुराल भेज दो...

Friday, October 14, 2011

"घर सपनों का..."

"दूर बहुत है
'घर' मेरा और तुम्हारा
वजहें इसकी
कहने को तो हैं कई सारी
कुछ झूठी मेरी
कुछ सच्ची तुम्हारी
झूठ है ये-
रोटी घर की ही
होती है मुलायम?
सच है ये
देती है ख़ुशी
यदि मिला हो, खुद का जतन?
घर से दूर रहना
किसे रास आता है
और फिर वापस लौट आना
कैसी आस दिलाता है
आशा-
एक नए घर की
सुखमय जीवन की.
परन्तु!
समय की शक्ति
घर को दूर-
और दूर ले जाती है
पर इच्छाशक्ति
मनस की
पैरों को पुरजोर
आगे बढाती है
नहीं रुकते हैं पाँव
चाहे
कितना भी रक्त निकले
और घर पहुँचने का रस्ता
कितना, क्यूँ ना सख्त निकले
और फिर
वही पंछी, वही कलरव
और वही छाँव
जिसके लिए
दौड़ जाते थे हम
नंगे पाँव
फिर माँ की आवाज़
डांटती, दुलारती और वही आस
जैसे, घर हो ना जाने कितना पास."

Saturday, October 8, 2011

'my life-irony'



Sometimes I behave like hell
the same moment
I wanna love you like my jewel.
whether you like it or not
but its me, only me...

I don't wanna change for you
or anybody else
if I do so, it wont be me
whether you like it or not
its my destiny...
I wanna share whole 'me' with you
but I am scared
that I would be left alone
whether you like it or not
its my true agony...

The day when all will be gone
then I will miss you for sure
trying to escape from this world
whether you like it or not
its my life-irony...

Thursday, October 6, 2011

"...तो मेरा तर्पण हो"

कहते हैं, दर्शन, दार्शनिक जानते हैं
और वे जीवन का सारा रहस्य
कुछ-कुछ कर पहचानते हैं
परन्तु,
ना मैंने दर्शन जाना और ना ही दार्शनिक को
फिर क्यूँ लगता है-
तुम, मेरा जीवन और जीवन-दर्शन हो
जब -जब किया तुम्हें दूर
सोचा अब शायद कुछ परिवर्तन हो
और भी पास होता गया
शायद यही मेरा समर्पण हो
जब उस पल,
खारे पानी का एहसास हुआ
तब मैंने जाना , तुम्हें पाया
और विकसित, विश्वास हुआ
हर बूँद को अंजलि में भरकर सोचा
अब तो मेरा तर्पण हो...

ज्वलंत उदाहरण

असमानताओं की जगह है
कोई है स्वयंभू और कोई आश्रित
निराश्रित भी कई हैं यहाँ
परन्तु इस पल में सब हैं शांत!!

कोई बताएगा मुझे क्या वजह है
कोई है यहाँ और कोई वहां
बिना किसी छोर के भी, कई हैं यहाँ
और इन सबके बीच मन है विकलांत

कोई तो कहे- क्यूँ ये सजा है?
चारों ओर अँधेरा, कहीं है एक दिया
खुद को जलाये भी, कई बैठे हैं यहाँ
स्वयं से पूछूँ? क्या है इसका अंत...

रेलगाड़ी, क्या यही परंपरा है?
कभी तो गति और कभी गतिहीन
साथ कभी जीवन का भी, सुना था यहाँ
खुद से पूछो, उदाहरण है ज्वलंत!!