Path to humanity

Path to humanity
We cannot despair of humanity, since we ourselves are human beings. (Albert Einstein)

Tuesday, July 31, 2012

दामन थामे...





छोटी छोटी बातों से
बनती हैं बड़ी खुशियाँ
खुशियों का दामन थामे
ही चलती है ये दुनिया
वक़्त के समंदर में डूबकर
कुछ नहीं मिलता
डूबकर, उभरने से
बनी है कई कहानियाँ
कहते कहते, रूककर
मन हार जाता है
हारे हुए मन से
भर जाती हैं ये अँखियाँ
हर राह पर मिल जायेगा
काँटों का समंदर
ढूढ़नी हैं तुम्हें उसमें
फूलों के लड़ियाँ
मिलना, ना मिलना
'उसका' है लेखा जोखा
जो है हाथों में
बस उसपर है हँसना
राख थी, कभी आग
ये जान लो मानव तुम!
खत्म हो जाना नियति है
मिट जानी है वो रतियाँ

Sunday, July 29, 2012

वादा तुम्हारा...




अभी अभी  याद आया मुझे
वादा तुम्हारा-
मेरा साथ निभाने का
आँखें मूंदें बस
तुम्हारी बाहों में खो जाने का
कंधे पर सर रख
सुकून में बैठ जाने का
तुम्हारा हाथ पकड़े
बस ख़यालों में सो जाने का
मुझसे गले लगकर
रूठ जाने का
नाराज़ होने पर
छूकर, मुझे मनाने का
हर 'उस' वक़्त की नमीं
आँखों से मिटाने का
दूर से पास-
और पास आने का
हर छोटी बात पर
तुम्हारे खिलखिलाने का
बातें करते करते
एकाएक चुप हो जाने का
चुप रह कर भी
बहुत कुछ कह जाने का
तुम्हारा,
मुझे पाकर इतराने का
कोहरे भरी सुबह में
माथे पर पसीने की बूँदें आने का
अधखुली आँखों से
मुझे देखकर, मुस्कुराने का
हर काली खाली रात को
उजाला बनाने का
तुम्हारा - मेरा
और मेरा - तुम्हारा हो जाने का
अभी अभी याद आया मुझे
वादा तुम्हारा...

Saturday, July 21, 2012

तुझपे ऐतबार क्यों है...


अब मैं क्या कहूँ तुझसे
बातें हैं ना जाने कितनी
वक़्त अब थम सा गया है
सांसें बस कुछ है बचीं
तू क्यूँ कहता नहीं मुझसे
तड़प तेरे दिल में है जो छिपी
अपने सिले लबों को खोल दे
तुमने अब तक कहा नहीं
कुछ बेवक्त नहीं है ए खुदा
कह दे, नहीं जाता अब सहा
क्यूँ है ये इंतज़ार
क्यों है तुझपे ऐतबार
क्या ये नफरत है
या है ये तेरा प्यार
समझा नहीं जाता मुझसे
तू खुद में बसा ले मुझे
अपनी बाहों में
दिल की पनाहों में
मिला दे मुझे-

तेरी तनहाइयों से
आँखों की गहराईयों से
गम की परछाइयों से
अब आ भी जा मेरे खुदा
बस कर बहुत हो चुका

Wednesday, July 18, 2012

ना कोई मनुहार...



सुबह, कोयल की सी मीठी आवाज़
जैसे छेड़ दिया हो तुमने
सितार पर मधुर मेघ-राग
तुम्हारा यूँ कुम्हलाना
मुझे सुनकर
एकाएक चुप हो जाना
हौले-हौले मुझमें
समाते जाना
दूर रहकर भी पास,
बहुत पास आना
मद्धम से कहना
कि तुम हो, मैं हूँ
और महकती हुई सांसें
मुंदी आँखों से
कल्पनाओं में गोते खाती
धुंधली कुहासें
सुर्ख गुलाबी होंठो का
मुस्कुराकर मुझे पुकारना
एहसास होते ही,
शरारत भरी अठखेलियों का;
तकिये में चेहरा छिपा लेना
और मुझे प्यार भरी
झिड़की लगाना
सारी उमर साथ रहने का
वादा निभाना
मुझमे समा जाने को
फिर से झगड़ना
नाराज़गी भरे लहज़े में
मुझसे गले लगने कि जिद करना
मेरे 'हाँ' कहते ही
अपनी बाँहों में जकड़ना
उस पल को थामे
सारी खुशियों को
एक पल में समेट लेना
कहाँ खो गया ये
अमिट एहसास
तुम दूर तो हो मुझसे
पर सच कहूँ-
अब हो बिलकुल पास
ना ही है ये प्रेम पाती
ना कोई मनुहार
हैं कुछ कोमल शब्द
और थोड़ा सा प्यार...

Sunday, July 15, 2012

...फिर 'उसके' बाद


'उसके' बाद, सोचा दरगाह जाने को
खुदा के पास
हिम्मत नहीं हुई
ना जाने क्यों...
रातों को अकेले
आसमान के नीचे
उससे बातें करते करते
सो जाता था
मुंदी आँखों से
उससे लड़ता था
चीखता था।
सोचता था
सब कुछ पहले जैसा हो जाये
वो बीता हुआ पल
वापस लौट आये
या मैं कैसे भी करके
वहां पहुँच जाऊं
सब कुछ ठीक कर
वहीँ रुक जाऊं
बंद आँखों में आंसू भरे हुए
डरता था
कहीं आखें खुलीं तो
आंसू बह ना जाएँ
या यूँ ही सोते हुए
आंखें बंद ही ना रह जायें
हर नयी सुबह सोचता
कहीं दूर चला जाऊं
वापस आने के सारे रास्ते
तोड़कर बिखेर दूँ
चलता रहूँ अनवरत
आकाश कि दिशा में
उससे मिलने
जो शायद, वहीँ छिपा बैठा है
जाने क्यों...?
अचानक लगता
कुछ हुआ ही नहीं
सब कुछ है वहीँ का वहीँ
वही एहसास
वही रहना,
उसका बिलकुल पास
फिर सच आ जाता सामने
इतना भारी कि
सांसें उखड़ने लगतीं
कितनों ने इस भार को बांटा है
पर तुमने क्यों नहीं
इतने निष्ठुर कबसे हो गये तुम
सिर्फ अपना
हाथ रख देते मुझपर
एक बार कह देते-
सब ठीक हो जायेगा
या सिर्फ 'वो' एक शब्द
पर तुमने कुछ भी नहीं कहा
चुप रहे सदा
खुद में
खुद को जज़्ब किये हुए
एक बार कहा होता मुझसे
पास होकर भी
तुम इतने दूर थे
बेचैन रहता था
तुम्हें पाने को
तुम्हें पाकर भी न पा सका
अब कहाँ मिलोगे तुम
दरगाह में?
सपने में?
आँखों में?
मेरे अन्दर?
खोज रहा हूँ तुम्हें
खुद में
अपने बहुत अन्दर
दरगाह जाऊंगा
तुमसे मिलने
या बुला लूँ
यही अभी
आंखें बंद कर
खो जाऊं साथ तुम्हारे
लड़ लूँ तुमसे
फिर एक बार
छू लूँ तुम्हें
जो आज तक
कोई ना कर पाया
या शायद मैं
कितना विह्वल था तब
आज कितना शांत हूँ
बाहर से ही
मन तो आज भी
खुद से लगातार
युद्ध कर रहा है
हर क्षण
अबाध गति से
काश अब ये थक जाये
या अपने सारी शक्ति संजोकर
लड़ता रहे
यूँ ही सदा
इतने सारे प्रश्नों के उत्तर
तुम्हारे पास होंगे
तो बुला लो अब मुझे
अपने पास
मत रहने दो मुझे
यूँ उदास
एक बार सहला दो मेरा माथा
सिर्फ एक बार
तुम्हारी कोमल उँगलियों का स्पर्श
आराम दे जाता
तुमने तो हर बार मुझे
सब कुछ दिया है
उस ज़हर से
ना जाने कितनी बार
अपने कंठ को नीला किया है
सिर्फ मेरे लिए,
पर अब क्यों नहीं?

Saturday, July 14, 2012

पैसों से सब कुछ खरीदा जा सकता है...?



पैसों से सब कुछ खरीदा जा सकता है?
कभी जीने की वस्तुएं
कभी सहूलियत
और कभी मन का आराम
पैसों से मनुष्य कभी नहीं थकता है
कि करनी है उसे उन्नति
पानी है उसे ख़ुशी
हर रात, हर सुबह, हर शाम
वो जो चित्रकार है, कहता है--
जिसने दुनिया को बनाया है
योग्य जीने के
जीकर, फिर मर जाने के
"कभी ना रुको, कभी ना थको, करते रहो काम"
मनुष्य के काम
हर शाम
नहीं देते उसे आराम
चाहिए उसे-
जीने को प्यार,
थोड़ा सा दुलार
उन्नति आज की
ख़ुशी हर साथ की
परन्तु,
ये आत्मज्ञान इतना दूर है
कि आँखें बंद हैं
दिख रही है
एक संतुष्टि
और
हाथों में कुछ पैसे लिए,
रोते हुए
एक बच्चा|
पैसो से सब कुछ नहीं खरीदा जा सकता!!

Thursday, July 12, 2012

'तुम...'




मन

तुमसे कुछ कहूँ...

कि तुम,
विश्वास हो हर रीत का
मन में छिपी उस प्रीत का
हारे हुए की अंतिम जीत का

तुम,
शक्ति हो हर आह में
रौशनी, निशा की हर राह में
माँ की ममतामयी चाह में

तुम,
छाया हो तपती धूप में
करुणा के प्रतिरूप में
जीवन के हर सुकून में

तुम,
विस्तार हो अंत का
एहसास मीठी सी छुअन का
सोंधी मिट्टी में नए जनम का

मन
तुमसे कुछ कहूँ...?

Wednesday, July 11, 2012

यूँ ही बेवजह...


कुछ नहीं, यूँ ही बेवजह
एक सोच है ये, कि
रिश्ते बनकर यूँ टूटें
तो हम कैसे जियें।
हम कैसे कहें कि
सब खुश रहें
जब सारी दुनिया का
सूनापन, हम सहें।

हर एक ख़ुशी का पल
हमसे अलग हो रहा है
उस पर गुमान ये कि
चेहरा तो हँसता रहा है।
कांपते हाथों से शब्द क्यूँ लिखें
जब अपने सारे पन्ने
सिर्फ सफ़ेद, सूने
और कोरे ही रहें।

एक बूँद पानी की टप कर बोली
'जीवन का सार है ये'
सदा चुप, सहते ही रहें
बेरंग, नमक से भरी ये बूँद
सूख चुकी अब, बोली
परिवर्तन कि चाह में
यूँ ही पल, हर पल
चलते ही रहें, चलते ही रहें।।

Monday, July 9, 2012

सपने अधूरे रह गए...


बहुत पुरानी बात कही गयी है, "कर्म करो फल की इच्छा मत करो", भगवान् श्रीकृष्ण  ने भी कहा है "कर्मण्ये वाधिकारस्ते  फलेषु कदाचनाकर्मफलेह्तुर भुरमा ते संगोस्त्वकर्मानी", पर ये बात आज तक किसी ने भी मानी हो ऐसा मुझे नहीं लगता। सभी कुछ कुछ पाने की कामना से काम करते हैं, ये अलग बात है कि ये कामना  सदैव स्वयं के लिए नहीं होती है। कोई अपने माता--पिता के लिया करता है, कोई अपने इष्ट मित्रों के लिए। कोई अपने बच्चों के लिए तो कोई अपने जीवनसाथी के लिए। कुछ लोग सिर्फ दूसरों के लिए अपना सारा जीवन न्योछावर कर देते हैं।
एक गोरय्या सारा दिन इधर से उधर, इस पेड़ से उस पेड़ तक उड़ती  फिरती रहती थी। थी बहुत ही छोटी तो उसे अपने ठौर के लिए कोई जगह नहीं मिल रही थी। यहाँ जाती तो कोई बड़ी चिड़िया पहले से उस स्थान पर होती और उसे बैठने तक ना देती। वहां जाती तो डर रहता कि कहीं उसे कोई नुकसान ना पहुँचा दे। यहाँ-वहाँ ढूंढ़कर जब उसे कोई स्थान ना मिला तो उसने सारी आशायें छोड़ दीं।
तभी सामने के एक छोटे से घर में उसने देखा कि लकड़ी का एक डिब्बा पड़ा हुआ है जिसमें ऊपर की ओर थोड़ा सा भाग गर्मी बरसात से सड़ कर टूट सा गया है, गौरय्या एक पल भी गंवाए बिना उस डिब्बे तक पहुँची और ये क्या, वो तो बड़ी आसानी से उसके अन्दर तक जा सकती है। उसकी ख़ुशी का ठिकाना ना रहा। ख़ुशी के मारे वो कभी इस डाल  पर बैठती तो कभी उस डाल पर। उसे अपना घोंसला बनाने के लिए एक सुरक्षित स्थान मिल गया था। उसी क्षण से उसने तिनके जोड़ना शुरू किया। घोंसले को मजबूत बनाने के लिए वो अपने आकार की तुलना में बड़े तिनके लेकर आती थी और उन्हें बड़े करीने से सजा रही थी। जब घोंसले की बुनियाद मजबूत बन गयी तो अब उसे कोमलता भी प्रदान करनी थी जिससे उसके बच्चे आराम से रह सकें। इसके लिए गौरय्या रुई के टुकड़े, छोटे छोटे पंख लाती और उसे तिनको पर सजाती जाती। कई दिनों की मेहनत के बाद उसका घोंसला बन गया। अपनी मेहनत से बने घर को देखकर उसे आत्मसंतुष्टि हो रही थी। संतुष्टि ये कि अब वो अंडे दे सकेगी और अपना परिवार सुरक्षित, सुंदर से घर में रखेगी। उसके जीवन की तुष्टि पूर्ण हो जाएगी। एक सुखी परिवार की।
कुछ ही दिनों के बाद गौरय्या ने दो अंडे दिए। छोटे छोटे अंडे, थोड़े सफ़ेद, कुछ लालिमा लिए हुए; एक शब्द में वर्णन करना हो तो 'प्यारे' थे वो अंडे। गौरय्या सारा दिन, सारी रात उन्हें सेती। इंतज़ार था अपने प्यारे बच्चों का। वो बैठे बैठे सोचती, जब उसके बच्चे बड़े होंगे तो वो उन्हें खाना खिलाएगी, पानी पिलाएगी। उन्हें बोलना सिखाएगी, उड़ना सिखाएगी। नित नए दिन वो तरह तरह के सपने देखती। कुछ दिनों के बाद अण्डों में से चूजे निकले; छोटे छोटे, प्यारे प्यारे। उनकी आंखें अभी बंद थी पर वो अपनी माँ के पहचान गए और ची ची करके उसे पुकारने लगे। गौरय्या ख़ुशी से अपने बच्चों को प्यार किये जा रही थी, उनसे बातें कर रही थी।
अब गौरय्या के सपने पूरे करने की बारी थी।
गौरय्या प्रतिदिन सुबह भोर होते ही बच्चों के दाना पानी की व्यवस्था करने निकलती। घरों के बाहर पड़े खाने की वस्तुएं, छोटे कीड़े; जितना हो सकता था वो अपनी चोंच में रखकर अपने घोंसले तक पहुँचती। उसकी आहट से ही बच्चे चहक उठते। जोर जोर से आवाज़ करते हुए माँ का स्वागत करते। गौरय्या बारी बारी से उन्हें खाना खिलाती, एक को खिलाती तो दूसराअपनी चोंच आगे करता,दूसरे को खिलाती तो पहला और जोर से आवाजें करता। जब दोनों मन भर के खा चुकते, गौरय्या पानी लेने एक बार फिर बाहर जाती। खाना खा के, पानी पी के बच्चों का मन तृप्त हो जाता और उनकी माँ का भी।
धीरे धीरे बच्चे बड़े होने लगे, अब वो अपने घोंसले से निकल कर डिब्बे में ही धमा चोकड़ी मचाते। कभी कभी एक दूसरे से लड़ते। तब माँ उन्हें समझाती, डांटती, दुलारती।
जैसे जैसे बच्चे बड़े हो रहे थे माँ की जिम्मेदारी बढ़ रही थी। अब वह उन्हें दुनिया की बातें सिखाना चाहती थी। वो चल तो लेते थे पर उन्हें उड़ना नहीं आता था। आता भी कैसे, उड़ने के लिए खुला आकाश चाहिए पर वो तो उस डिब्बे में बंद थे। गौरय्या ने सुरक्षित घर की तलाश में इस बात पर ध्यान ही नहीं दिया की उसके बच्चे उस डिब्बे से बाहर कैसे निकलेंगे। बाहर निकलने का स्थान बहुत ही संकरा है और ऊपर तक पहुँचने के लिए बच्चों का थोड़ा तो उड़ना आना ही चाहिए। अब गौरय्या के दुःख का कोई ठिकाना नहीं था, उसे कुछ समझ में नहीं रहा था कि वो क्या करे।
कुछ ही दिनों में बच्चे धूप और बाहर की आबो हवा के बिना कमज़ोर पड़ने लगे। शरीर को बढ़ने के लिए सिर्फ खाने की ही ज़रूरत नहीं होती उसे और भी बहुत सारी प्राकृतिक वस्तुओं की आवश्यकता होती है, जो उन चूजों को नहीं मिल रही थी। गर्मी के दिन थे। दिन में धूप होती, डिब्बा गर्मी से जलने लगता। जब गौरय्या पानी की तलाश में बाहर जाती, बच्चे डिब्बे में अकेले बंद पड़े रहते। कुछ दिनों तक तो बच्चे इस परेशानी को सह गए पर एक दिन जब गौरय्या दाने- पानी के लिए बाहर गयी, सूरज की तेज गर्मी डिब्बे को झुलसा देने को दृढ़ थी। बाहर दूर दूर तक पानी नहीं था।|
गौरय्या को आने में थोड़ी देर हो गयी, जब वो वापस अपने घोंसले तक पहुँची तो उसने देखा उसके दोनों बच्चे अकड़े हुए पड़े हैं।| रोज़ रोज़ की गर्मी से आज वो टूट गए और अपनी जान गवां बैठे। वहाँ  कोई नहीं था जिससे गौरय्या अपनी व्यथा कह पाती। वो बिलकुल शांत थी।
आज भी हर रोज़ गौरय्या उस डिब्बे के अन्दर जाती है और अपने अब सूखे हुए बच्चो को देखती है। वो आज भी शांत है, रोज़ की तरह।
सपने अधूरे रह गए। उसने कर्म किया, फल की चिंता नहीं की।