Path to humanity

Path to humanity
We cannot despair of humanity, since we ourselves are human beings. (Albert Einstein)

Monday, November 30, 2015

'एक सत्य...'
The only truth

मुझे लगता है,
टूटना जरुरी है कुछ टूटा जोड़ने के लिए
हम सभी तो
कहीं ना कहीं से टूटते ही हैं संवरने के लिए
ये टूट फुट, कभी सच कभी कुछ झूठ
एक हैं। पूरक हैं एक दूसरे के लिए
स्वयं का अभिप्राय तो सरल है
किन्तु प्रयोजन किसी दूसरे में निहित होना
जरा कठिन एवं कष्टदायी विदित् होता है
इसपर विजय ही सत्य विजय समझी जानी चाहिए
धर्म अपनी मान्यताओं से शक्तिशाली नहीं
अपितु निष्काम भाव का जुड़ाव ही धर्म है
यदि राम सत्य मर्यादित हैं तो कृष्ण आधुनिक
यदि रामाक्षरों का पालन किया जाना चाहिए
तो कृष्ण अभिभाषण आत्मसात करने होंगे
सर्वस्व जीवन तिरोहित करना
सर्वस्व त्यज देना, स्वयं में मानवता की
पराकाष्ठा है। करुणा जोड़ने से मिलती है,
तदोपरान्त आत्मसंतुष्टि।
एक अपूर्णता का भविष्य, सम्पूर्णता है
जिसका भूत कहीं और की अपूर्णता
हाथ में वर्तमान, जो यदि टूट जाये तो
जुड़ भी जायेगा- किसी गहरी सांस के साथ
जिसमें आँख मिचोली खेलती दिख जायेगी
कोमल निश्छल हृदयी हंसी।


-Snehil Srivastava
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'मौन और ॐ
The silence and ॐ

कुछ मंत्र, कुछ अघोरी, कुछ सिद्धियां
और मेरा अज्ञान
आमने सामने। दृष्टि संयत, श्वास उद्वेलित
दूर सुनाई पड़ता मूक गान
मेरा केवल एक प्रश्न-
मृत्यु दुःख और जीवन सुख क्यों है?
उत्तर विस्तृत-
ॐ।
अतिरिक्त सबकुछ मौन।
रहस्य की भांति, प्रथम योगी की पाती
बतलाये अर्थ मंत्रो का
समझाए तर्क अघोरियों का
कहलाये विमर्श सिद्धियों का
मृत्यु अंत, जीवन प्रारम्भ
एक में छूटे सब, दूजे पर कितना दम्भ
त्याग कष्ट है, दुःख। और जब मिले कुछ भी, होता सुख
किन्तु,
मृत्यु अंतिम सुख और जन्म प्रथम
बाद जन्म के हैं कष्ट सघन
सर्वोपरि इनमें एक उच्चारण
ॐ।
अतिरिक्त सबकुछ मौन।
अतिरिक्त सबकुछ मौन।


-Snehil Srivastava
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'समय और कलाकार'
The Creator and Time

क्या कीमत हो सकती है किसी के जीवन की
और वो जीवन मानव का हो जरुरी तो नहीं
हमारे क़दमों तले जाने कितने काल को प्राप्त होते हैं
हम उन्हीं क़दमों संग नित नयी ऊंचाइयां छूते हैं

जीवन का अर्थ पर-मृत्यु तो नहीं
हम हंसे कोई रोये और कहीं
मेरे मन के वन में बैठा एक राही
जिसे जाने किसने एक भेद की बात बतायी

समय चलायमान है बाकी सब है रुका हुआ
आज अगर हुई है एक मृत्यु तो आज ही एक नया जन्म भी हुआ
कुछ नहीं ऐसा जो कारण हीन हो
नहीं है कोई जीवन जो मूल्य विहीन हो

अस्तित्व, महत्वपूर्ण है
अन्यथा जीवन अपूर्ण है
उस कलाकार की कृतियाँ हैं चहुँ दिशाएं
उस बिन नहीं संभव एक सूखा पत्ता भी हिल जाये



-Snehil Srivastava
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'भटका हुआ राही या कि...'
Innocent Traveler

कल रात जब मैं
बस यूँ ही अपने ख्यालों में खोया
कहीं से चला आ रहा था
या शायद कहीं जा रहा था,
मुझे एक भटका हुआ राही मिला
हंसी तब हो गयी
जब उसने मुझसे
अपनी भटकी हुई राह पूछ ली
मेरे खुद के सवाल अनगिनत हैं
मैं भला उसके सवाल का
क्या जवाब देता, उसे क्या राह बताता
फिर ना जाने यकायक उसे क्या हुआ
वो वही जमीन पर बैठ गया
और कुछ बुदबुदाने लगा
वो जमीन को घूरे जा रहा था
जैसे उससे बातें कर रहा हो
और फिर उसने अपनी आंखें बंद कर लीं
और अपनी नाक सिकोड़कर कुछ सूंघने सा लगा
शायद वो मद्धम मद्धम बहती हवा को
महसूस कर रहा था
सामने दीवार की आड़ पर ईंटों से बने चूल्हे
की अधजली राख, जिसे शायद किसी रिक्शेवाले ने
अपने एक वक़्त के खाने के लिए जलाया था,
को देखकर मैं कुछ सोचता इससे पहले वो
उछलकर उस राख से एक अंगार उठा लाया
और इस हाथ से उस हाथ खेलने लगा
मुझे तो लगा वो सनकी है
या फिर कोई विक्षिप्त।
उस रात का आकाश अर्ध चंद्र
और सैंकड़ों नक्षत्रों से भरा था
जिससे उसी पल जाने किस कारण से
बूँदें गिरने लगीं
और वो किसी शिशु की भांति जोरों से हंसने लगा
मैं कुछ समझ पाता कि वो उठकर
किसी अज्ञात दिशा में ओझल हो गया
अब तक भोर हो चुकी थी
और मेरी आँखें बोझिल
मुझे किसी भी ओर किसी कदम के
कोई से निशान नहीं दिख रहे थे
हाँ मेरे हाथों में कुछ छाले जरूर पड़े हुए थे
वो भटका हुआ राही ही था
याकि इस जीवन का सत्य कारण
ही भटक गया है अपनी राह



-Snehil Srivastava
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'दूसरी कविता'
Another poem

जब मुझे मेरी पहली कविता अच्छी नहीं लगी
तो मैंने सोचा क्यों ना आज मैं एक दूसरी कविता लिखूं
और लिखूं कुछ बातें दूसरों की
पहली कविता, पहली होकर भी हारी हुई सी थी
और दूसरी, दूसरों की तरह परायी
एक दूरी का एहसास है इसमें
शब्दों और मनोभावों के मध्य
इन असंख्य वस्तुओं का अस्तित्व
जीवित अथवा मृत
जिनसे दूर दूर तक कोई सरोकार नहीं
कभी कभार अपनी लगती हैं
दूसरी नहीं
वरना इस पुराने पीपल के नीचे
क्यों कर इतने सारे टूटे ईश्वर पड़े होते
और ये सुखी फूल मालायें
जिनसे कभी महकती थी वायु
ये पहले तो कितने पूज्य थे
और आज दूसरों की भांति
त्यज्य दिए गए हैं कि जैसे
इनसे कभी कोई नाता ही नहीं था
और फिर ये चारों ओर का वातावरण
जिससे अच्छा ये दूसरा जीवन
ही दीख पड़ता है
असीम शांति
अविरल सुख
अनवरत संतुष्टि
अतुलनीय दृष्टि
पहली कविता काश दूसरी होती!

-Snehil Srivastava
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'रंगीन गुब्बारे'
Innocent Balloon

आज मैंने ख़ुशी लाल गुब्बारे में फूटती देखी
एक बचपन कितना सरल होता है
जिसे कुछ नहीं चाहिए
ना रुपये ना गाड़ी बंगले
ना ही कोई भौतिक सुख
इसकी सरलता सुख के एहसास में है
जिसका मोल ये संसार तो नहीं ही लगा सकता है
बाजार में माँ के साथ आया बच्चा
गुब्बारे वाले को देखते ही खुश हो उठता है
की उसे इन रंग बिरंगे गुब्बारों में से
ये वाला, नहीं नहीं वो वाला
या फिर सारे के सारे गुब्बारे चाहिए
लाल पीला हरा नीला
किर्र किर्र की झुंझला देने वाली आवाज़ वाला गुब्बारा
और माँ ख़ुशी ख़ुशी उस नटखट की ख़ुशी में
कुछ छोटे कुछ बड़े गुब्बारे ले देती है
दो चार क्षणों बाद ही, धड़ाम!
फूट गया लाल गुब्बारा
टूट गया कोमल हृदय
यही तो सबसे प्यारा गुब्बारा था
अँखियों से मोती जो टपकने से लगते हैं
माँ उन्हें पोछती है, बच्चे को पुचकारती है
कहती है,
अरे ये नीला वाला तो तुम्हारे कपड़ों के रंगों से
मेल खाता है, लाल वाला तो कुछ छोटा सा था
और वो हंसने लगता है
उसे लाल गुब्बारे वाली ख़ुशी
नीले गुब्बारे में जो मिल गयी
और यदि ये भी हुआ धड़ाम तो क्या
पीला हरा नारंगी, जाने कितने रंग हैं
आज मैंने ख़ुशी नीले गुब्बारे में जुड़ती देखी

-Snehil Srivastava
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Monday, November 23, 2015

'संदूक'
The Box


आज मैंने अपना लोहे का संदूक खोला
पहले दादी इसमें
अपनी दुनिया जहांन की चीजें रखती थीं
अलीगढ़ का मजबूत ताला लगाकर
और कुंजी अपने गले में लटकाकर
एक बार मैंने इसी सन्दूक में
एक और दो रुपये के नोटों की
करारी गड्डियां देखी थीं
दादी त्योहारों में
सबको एक-दो नोट दे दिया करती थी
कि जाओ मिठाई खा लेना
और हम हँसते, कहते
"दादी, दो-चार रुपयों में अब कुछ नहीं मिलता"
कुछ पुराने सिक्के भी रखे थे दादी ने इसमें
अब तो वो चलते ही नहीं
पर हैं बड़े खूबसूरत
छोटे छोटे से
कुछ एक पुरानी किताबें भी रखी हुई थी
हनुमान चालीसा, दुर्गा सप्तशती
मेरी दादी को उर्दू बड़ी अच्छी आती थी
अलिफ़ बे ते
हम सुनते और हँसते
हम जब भी दादी से संदूक की कुंजी मांगते
वो हमें डपट देतीं
फिर एक दिन दादी चली गयीं
मुझे कुंजी मिल गयी
आज सालों बाद
पहली बार मैंने संदूक खोला है
वही करारे नोटों की गड्डी, कुछ पुराने सिक्के
किताबें भी तर ऊपर जस की तस रखी हैं
कितना अच्छा होता
ये कुंजी मेरे पास ना होती
और मैं कभी संदूक ना खोल पाता
हाँ कभी चुपके से
इसमें झाँक जरूर लेता
शायद कुछ खोया मिल जाता
मेरा अपना।

-Snehil Srivastava
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Wednesday, November 18, 2015

नीम का एक और पेड़...
A tree of hope

मेरे गाँव में एक नीम का पेड़ हुआ करता था
काका कहते हैं,
उसे उनके पुरखों ने लगाया था
उस ज़माने में लोग पेड़ों का बड़ा मान करते थे
काका को शुरू शुरू में वो पेड़ बिलकुल पसंद नहीं था
उन्हें तो बस जेठ बीतने के बाद
आम के बागों में टिकोरे तोड़ना पसंद था
कभी कभी जामुन और शहतूत भी तोड़ लाया करते थे
हाँ, ये बात और है कि परधानिन बुआ
गोधुर होते ही चौखट पर आ धमकती थीं
और दादी माँ से लड़ती थीं
एक बार जब छोटे काका का बुखार सर पर चढ़ गया
तो उसी नीम के पेड़ की पत्तियों के रस को पीकर
छोटे काका अच्छे हो गए थे, और तभी से
काका नीम के पेड़ को सबसे ज्यादा चाहने लगे
उन्हींने तो उसके चारों ओर चबूतरा बनवाया था
जिसपर, क्या भोर क्या दोपहरी
क्या शाम और क्या रात
हर वक़्त मण्डली जमा रहती
कभी मदारी बन्दर का नाच दिखाता
तो कभी भालू का खेल
और जैसे सबके साथ वो नीम का पेड़ भी
हंस बोल रहा हो
जब पतझड़ आता तो सब कुछ वीराना सा हो जाता था
पर बसंत ऋतू आते ही नई कोंपलें
नयी उमंगों से उसे एक बार फिर हरा भरा कर देती थीं
उस पेड़ ने गांव की कई पीढ़ियों को जन्मते
और फिर उन्हीं पीढ़ियों की मृत्यु को भी देखा था
क्रंदन सुनकर वो शान्त हो जाया करता था
और खुशियों में वही पेड़ झूम उठता था
उसकी छाँव में एक अजीब सा सुकून था
और उसके रूप का विस्तार बड़ा ही अद्भुत
काका बताते हैं कि जब जब वो दुःखी
या परेशान होते थे, तो अपना अंतर्मन
उसके सामने उड़ेल देते थे
और वो जड़वत हो सब कुछ स्वयं में समां लेता था
अब वो पेड़ बहुत जर्जर हो गया था
और जब वो पूरी तरह सूख गया तो उसे काट दिया गया
अब उस स्थान पर
भगवान् शिव का छोटा सा मंदिर बनाया गया है

मुझे भी आम, जामुन, शहतूत बहुत पसंद हैं
कल मैंने अपने दालान में एक नीम का पेड़ लगाया है
मुझे लगता है इसी में मेरा सुकून है
यही विस्तार है, जो एक दिन विस्तृत होगा

-Snehil Srivastava
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Friday, November 13, 2015

नन्ही चिड़िया
Little Bird

चकबक चकबक करती चिड़िया
आकाश तले थी उड़ती चिड़िया
और भी ऊंचा उड़ना चाहे
अस्तित्व-युद्ध थी लड़ती चिड़िया
जब बादल काले घने घुमड़ते
दुबक-सुबक कर डरती चिड़िया
संसार है विस्तृत जाना तब उसने
स्वलक्ष्य बिना क्या करती चिड़िया

पंख छिटककर दूर जा गिरे
जी जीकर थी मरती चिड़िया
खून बहा और दर्द भी हुआ
फिर भी थी और निखरती चिड़िया
ये जीवन है बिलकुल उस जैसा
जैसी है ये कोमल चिड़िया
चकबक चकबक करना चाहे
मेरे मन की नन्ही चिड़िया

-Snehil Srivastava
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Thursday, November 12, 2015

'तू और तेरी हंसी'
Happiness...

तेरी महक,
कुछ भोली सी लगती है
तेरी हर बात,
हंसी ठिठोली सी लगती है
तेरे चलने पर दिख पड़ती है
पायल की छनक
तेरी छुअन मुझे,
दीवाली की रंगोली सी लगती है
तेरी हर अदा,
सुनहली सी लगती है
तू कई बार मुझे,
पहेली सी लगती है
तेरा सजना तेरा संवरना
देखा है मैंने कई दफा
तू मुझे दुल्हन,
नयी नवेली सी लगती है

चलो फिर आज हम एक वादा करें
यूँ ही हंसते रहने का इरादा करें
टूट भी जाये ये वादा तो कोई बात नहीं
ना जरा कम करें, थोड़ा ज्यादा करें

तेरी महक तेरी बातें तेरा चलना तेरी छुअन
और इन सबके बीच हँसता मुस्कुराता मेरा चंचल मन

-Snehil Srivastava
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Tuesday, November 10, 2015

Inside you

Your inside self, that only you can know but your mother knows since you took birth in her soul. I love your ‘this’ self-more and more every passing click of time. This is so serene. So true, like a child.
I had always wondered whatever, whenever; my mommy says becomes truth. She used to tell me, how I behaved lovingly when I was a little child. She was tall when I was small. She was beautiful and now she is even more. I have lied many a time but I know it was the outer shell talking and after years gone one fine day of November someone inside me wanted if it could rain I would become closer to my mommy. A few seconds later hummingbird tune rang my mobile phone and as I picked it to talk to mommy a cold rain drop touched my cheek. And she could only say, "I'm missing you like heaven."
My eyes welled up with a never fading smile and its droplet met with the November rain drop.
Sometimes you cannot know your true self but your mother will always find what you want, as if you are still her body part. And yes, you are! Trust me.

‪#‎Mother ‪#‎Love ‪#‎True ‪#‎Best
-Snehil Srivastava
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Monday, November 9, 2015

तुम और मेरी कविताएं
You, and my Poems!

मेरी कविताएं तुम सी नहीं ये झूठी हैं, जाने मुझसे क्यों रूठी हैं इनमें मर्म नहीं, करुणा का वास नहीं ये विफल हैं, जीवन की इनमें आस नहीं क्योंकि मेरी कविताएं तुम सी नहीं तुम जल सी निर्मल काया हो तुम वृक्षों की ठण्डी छाया हो इनमें शब्दों का मेल नहीं कि अशरीर सा कोई साया हो तुम सहज मनस्वी सतेज सरल तुमने पिये हैं मृत्यु विष और गरल ये लय में बंधे कुछ बाण सरीखे जिनके हुए ना आज ना कल ये सत्य नहीं, इनका कोई अस्तित्व नहीं इनसे झलकता प्यार नहीं, हाँ तुमसा कोई संसार नहीं ये कोरे पन्नों पर सज धजकर बैठी रहीं किन्तु मेरी कविताएं तुम सी नहीं
-Snehil Srivastava
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© Snehil Srivastava

Tuesday, November 3, 2015

सम्पूर्णता
A Dream is a wish

हर टूटा सपना, किसी और के
अधूरे सपने पूरा करता है
मेरे भी कई सपने टूटे हैं
मेरे भी कुछ सपने पूरे हुए हैं
पर अब मैं ये नही चाहता
कि कोई और सपना टूटे
मेरे अधूरे सपनों के लिए
पर क्या पूर्णता की नियति
अपूर्ण होने तक ही सीमित है
सपनों को किसी सीमा में बांधना
उनके कोमल अस्तित्व को
जंजीरों में जकड़ने जैसा होगा
जिनमें बंधकर हर सपना
खिलने से पहले ही मुरझा जायेगा
यदि हर एक सपना
किसी अन्य सपने का सहाय्य हो
तो कोई भी सपना
कभी नहीं टूटेगा
और उसकी मुस्कराहट की महक
सारी वर्जनाओं को तोड़कर
दसों दिशाओं में बिखर जायेगी
जहाँ,
न कोई बंधन होगा, ना ही कोई सीमा
होगा तो बस-
एक सम्पूर्ण सपना


-Snehil Srivastava
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© Snehil Srivastava