Path to humanity

Path to humanity
We cannot despair of humanity, since we ourselves are human beings. (Albert Einstein)

Wednesday, January 26, 2011

'सच' थोड़ा सा...


क्या लिखूं
लिखूं कोई बात
या एक सहमा सा एहसास
या लिखूं थोड़ा सा
या कुछ सच


सारी रात अँधेरे में
आँखें मेरी
कुछ ढूंढा करती है
शायद खोज ये
एक असीम नींद की होती है
जिसके बाद सिर्फ और सिर्फ
एक क्षितिज होता है

उस पार क्षितिज के
मेरा इंतज़ार करते हुए
कोई, ना जाने कब से बैठा है
कौन है ये?
मैं हूँ या मेरी प्रतिछाया
या ये सिर्फ मेरा एक भ्रम है
कोई नहीं है उस पार
कोई नहीं कर रहाइंतज़ार
वहां तक जाने की छटपटाहट सी होती है
पर जाने कौन सी बात
मुझे बांधे सी रहती है

कितना मुश्किल हैये
सोचकर
आँखें बोझिल होने लगी हैं
और धीरे धीरे मन  को
नींद की गहराईयों में
डुबोने सी लगती हैं
सांस लेना
कितना मुश्किल है यहाँ
कितने लोग हैं इस गहराई में
सारे के सारे अनजाने
या कुछ कुछ पहचाने से
ये मिट्टी कितनी गीली है
सारा कीचड़ पैरों में
सना जा रहा है
कब्र की खुशबू का एहसास
इतना भारी क्यों है
कौन हैं ये लोग
मुझसे बांतें क्यों नहीं करते
क्या नाराज़ हैं मुझसे?

तभी कहीं दूर
लगा जैसे तुम हो
पर मुझे पहचान क्यों नहीं रही हो
कुछ तो कहो
दम घुट रहा है
नींद टूट जाएगी
या मैं!!

'सच', कहा था तुमने
लिखने को.
देखो कितना
अजीब सा है
ना ही ये थोड़ा है
और ना ही अच्छा
पर सच तो सच है
कैसे बदलूँ मै उसे
फिर घुट रहा है दम
जैसे नींद  जाएगी
गहरीबहुत गहरी
और ले जाएगी
पार
उस क्षितिज के
खुद से दूर
हमेशा के लिए........