दूर से ही झालरों की टिमटिमाती सी रोशनी दिखाई पड़ी और बिलकुल नया फ़िल्मी गाना कानों में समाया जा रहा था.आखिर ये मेरे घर पर इतनी सजावट क्यूँ है, मुझे किसी ने कुछ बताया ही नहीं?तभी एक झटका सा लगा, सामने जलती बुझती सी लाईन पढ़कर, "Aviral Weds Pratima"!!"मम्मी!! मम्मी!! मम्मी!!" (मैंने चिल्लाकर कहा), "कहाँ हो , क्या हो रहा है ये सब? किसका नाम लिखा है बाहर? पागल हो गए हो क्या सब लोग?"मैंने प्रश्नों की झड़ी सी लगा दी.पापा, मम्मी के साथ ही खड़े थे, मैंने उनसे पूछा- "पापा!! क्या बकवास हो रहा है यहाँ"उन्होंने मम्मी की ओर देखा जैसे शांत खड़े थे वैसे ही खड़े रहे.तभी मेरी मम्मी, मुझसे बोलीं- "अरे भैया!! तुम्हारी ही शादी है और किसकी होगी?""किसी की भी हो, मुझे नहीं करनी...जा रहा हूँ मैं वापस, आप सब लोग ना जाने किससे करवा रहे हो मेरी शादी,और किसी से भी करवाओ, जब मुझे अभी शादी करनी ही नहीं तो फिर बात ही खत्म""बेटा, माँ-बाप कब तक रहेंगे साथ, कभी तो करनी ही है ना और एक बार लड़की देख तो लो फिर कहना"(मम्मी पूरे आत्मविश्वास से बोलीं)"मुझे कोई लड़की-वड़की नहीं देखनी, ना जाने कौन पागल है जो बिना मुझे देखे शादी के लिए तैयार हो गयी, बेवक़ूफ़!!और अब देख कर करना क्या है जब मैं वापस जा रहा हूँ."आया था छुट्टी लेकर कुछ दिन चैन से रहने और यहाँ सब के सब सारी ज़िन्दगी का चैन छीनने पर लगे हैं, (मैं मन ही मन बड़बड़ाया).और फिर वही, मम्मी का रोना-धोना शुरू-"तुम लोगों को क्या है, तुम्हे क्या पता, पापा और मैं कैसे रहते हैं यहाँ पर अकेले?पापा चले जाते हैं आफ़िस और मैं सारा दिन बस तुम ही लोगों के लिए सोचा करती हूँ.ठीक है, मत करो शादी. जो जी में आये करो. करो सब अपने मन की. माँ-बाप के लिए सोचता ही कौन है.""अच्छा ठीक है, चुप हो जाओ मेरी प्यारी माँ. एक गिलास पानी तो दे दो अपने बेटे को. प्यास से गला सूखा जा रहा है. एक तो इतनी गर्मी है और यहाँ इतना बड़ा ड्रामा!!" (मैंने अपनी माँ को चुप करने की सफल कोशिश की.)मैं पानी पी ही रहा था कि मम्मी ने दुसरे हाथ में एक लड़की की फोटो थमा दी.एक बारगी लगा, यही है क्या? सच में कितनी भोली है ये. कितनी खूबसूरत है, बिल्कुल परी जैसी (वैसे मैंने आज तक परी देखी तो नहीं, लेकिन जहाँ भी होगी बिलकुल इस जैसी ही होगी.)"कहाँ के हैं ये लोग?" पहला ही प्रश्न मेरे मुह से निकला."बेटा, लखनऊ के रहने वाले हैं.पापा इसके डॉक्टर हैं. अब रिटायर हो गए हैं. एक बड़ा भाई है, मुंबई में जॉब करता है और ये भी बैंगलोर में जॉब कर रही है."चलो अच्छा हुआ, मुझसे अच्छी कंपनी में कर रही है तो शादी कैंसल. (मैंने मन में सोचा)."ऐसा कुछ नहीं है, बड़े अच्छे लोग हैं. ऐसे क्या घूरे जा रहे हो, फोटो को? (और मै उनके सामने झेप सा गया)सच है,ये माँ भी ना, मन में ही बैठे रहती है. यहाँ आपने कुछ भी सोचा नहीं कि उन्हें सब कुछ पता चल जाता है."अरे, मैं सोच रहा था कि ये ठीक-ठाक तो लग रही है तो मुझसे शादी क्यों करने लगी?"- मै बोला."काहे, हमार बिटवा कोनो से कम है का?"- सारी माँओं की तरह, मेरी माँ का भी, आज तक का सबसे पुराना और अनुत्तरित प्रश्न.माँ बोली- "अच्छा चलो, अब देर ना करो, छोटा सा फंक्शन रखा गया है, जल्दी-जल्दी में कुछ इन्तेज़ाम ही नहीं हो पाया. बाकी का रिसेप्शन में देखा जाएगा. अब चलो तैयार हो जाओ, पापा लखनऊ से सूट लेकर आये हैं तुम्हारे लिए.और फिर ना जाने मैंने हाँ क्यों कर दी, मैं भी शायद इन लोगों की तरह पागल हो गया हूँ. कुछ समझ में तो नहीं आ रहा था, बस सब कुछ खुद-ब-खुद हो रहा था."बेटा चलो, पापा बुला रहे हैं."- मम्मी फिर बोलीं."हाँ, आ रहा हूँ. आप चलो."- मैं कहा.एक आखिरी बार अपना चेहरा देख लूँ कि मैं सच में पगला तो नहीं गया हूँ जो शादी करने जा रहा हूँ.क्या-क्या सोचा था- ये करूँगा, वो करूँगा. पर ये लोग तो चाहते ही नहीं की मै कुछ अच्छा करूँ.(जाने कैसे कैसे ख़याल आ रहे थे मेरे मन में)"बेटा!!"- पापा की आवाज़ आई.(अरे जान ले लो आज मेरी)-"आ रहा हूँ पापा."गाड़ी जैसे-जैसे आगे बढ़ रही थी, ऐसा लग रहा था कि ज़िन्दगी कुछ घट घट सी रही है.ये, शादी होती ही क्यों है, किसने बनाया है इसे. लोगों को कुछ और काम नहीं होता क्या, और इस बेवक़ूफ़ प्रतिमा को क्या सूझा. इतनी सुन्दर है, इसकी शादी तो वैसे भी हो ही जाएगी. लगता है, भगवन ने सुन्दरता तो दे दी,बुद्धि देना भूल गए इसको."आइये, भाई साहब, आइये"एक जनाब हाथों में फूलों का गुलदस्ता लिए पापा की ओर बढ़े. (यही होंगे उस बेवक़ूफ़ के पापा)."आओ बेटा", एक भोली सी औरत, गहनों में सजी हुई, और हाथों में पूजा कि थाली लिए मेरी तरफ देखते हुए बोली.(ये शर्तिया 'उसकी' माँ होगी)सारी माएं इतनी भोली क्यूँ होती हैं?O' hello, sentimental इंसान!! शादी हो रही है तेरी...concentrate कर concentrate...(मेरे मन ने मुझे झिड़की सी लगायी)मैंने आगे बढ़कर उनके पैर छुए और फिर उन अंकल के भी,जो पापा से गले मिल रहे थे."लो आ गयी प्रतिमा"- आंटी ने कहा.(ये इतनी खूबसूरत क्यों है भाई?)- मेरे मन ने मुझसे पूछा."अरे चुप रह, concentrate करने दे concentrate...!!"बिटिया, प्रतिमा, अविरल को अंगूठी पहनाओ और फिर माला""हाँ बेटा, हाथ आगे बढ़ाओ"यार, क्या तुम बचपन से ही ऐसी हो, इतनी प्यारी?मन ही मन मैंने उससे पूछा और वो हौले से मुस्कुरा दी, जैसे उसने मुझे सुन लिया हो.और फिर अंगूठियो की अदला-बदली, फिर खुसबूदार गुलाब के फूलों की माला पहनाई मैंने उसे और उसने मुझे.लो हो गयी शादी, और हो गयी हो गयी जेल, मन में ना जाने ये सारी बातें कहाँ से घूम रही थी मेरे, उसी का असर रहा होगा, इतनी सुन्दर जो है ये."चलो बेटा, खाना खा लो."- उसके पापा बोले."हाँ, अंकल"- मैंने कहा.और फिर हम लोग खाने की मेज की तरफ बढ़े.जब से आया था, एक गिलास पानी के सिवा कुछ नहीं गया था मेरे मुंह में. लेकिन निवाला बड़ी मुश्किल से जा रहा था, ना जाने क्यूँ? भूख लग भी रही थी और नहीं भी.मैं बस उसे देखे जा रहा था. जैसे कोई सपना देख रहा हूँ.सपना...!!!!!तो क्या ये सब एक सपना था. अचानक नींद खुल गयी मेरी. ये सब मैं सपने में देख रहा था? (खुद से पूछा मैंने)लेकिन खूबसूरत था सब कुछ और सबसे अच्छा था खाना पर उससे कहीं अच्छी थी प्रतिमा और मेरी माँ.
-स्नेहिल श्रीवास्तव