इस काली रात के बाद
एक नयी सुबह तो होगी शायद
पर इन ख्वाबों को देखकर लगता है
आँखें मूदें रहूँ, फिर ना उठूँ
फिर ना उठूँ, कुछ कर गुजरने को
फिर से जीकर, फिर से मरने को
पर इन झंझावातों के बाद
एक नयी सुबह तो होगी शायद
यदि हार भी है एक पहलू
जीत के दुर्व्यवहार का
तो इन हारों को देखकर लगता है
अब ना जीतूं, फिर ना जीतूं
फिर ना जीतूं, एक भी नश्वर जीत से
हार जाऊं हर जीत अपनी ही निश्छल प्रीत से
पर इन हारों के बाद
एक नयी सुबह तो होगी शायद
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© Snehil Srivastava