Path to humanity

Path to humanity
We cannot despair of humanity, since we ourselves are human beings. (Albert Einstein)

Wednesday, January 29, 2014

बरसों पहले A long ago

इस सहमीं आहट तले
सुकून तो नहीं मिलता
फिर होता है एहसास
कि कुछ तो है हुआ
ना आज, ना ही कल
बरसों पहले

जब जब यूँ होता मुझपर
ह्रदय तीर्ण हो उठता है
खुद को रोक लेने का साहस
हर बार नहीं दिखता है

ना है ये चंचलता मन की
ना ही कोई दुःसाहस है
खोया कुछ पा लेने की चाह
हर पल लगती ह्रदय विदारक है

यदि मैं अब थम भी जाऊं
कुछ तो न बदल पाउँगा
छुटी हुई जीवन धुरी को
अब मैं ना पकड़ पाउँगा
ना आज, ना ही कल
बरसों पहले

(NoteNo part of this post may be published, reproduced or stored in a retrieval system in any form or by any means without the prior permission of the author.)
© Snehil Srivastava

Wednesday, January 22, 2014

अतिरेक Spontaneous overflow in tranquility


कहाँ गया वो भाव
तुमसे मिलते रहने का चाव
जब अतिरेक में कह जाता था तुमसे अपना ह्रदय
कहना अब भी चाहता हूँ पर
किससे, कहूं कैसे ?
धूमिल हुई हैं कुछ
मुस्कुराहटें
सूख चुके हैं आंसू सब
पर एहसास तो अब भी है। 
यदि मैं चीख पडूं तो न बदलेगा कुछ
सत्य जो ठहरा
यूँ कुछ ढूंढ़ते रहना
थका सा देता है मुझे
ये एक ही तो जीवन है
काश एक बार फिर शुरू हो जाता
काश एक बार फिर मुस्कुराता
अतिरेक में बह जाता
थोड़े ही सही, मीठे भाव जगाता
दुनिया को लुभाता
और फिर गहरी नींद में सो जाता
सपनों को पास पाकर
एक सिहरन सी उठती है
जैसे सपना नहीं
हो सत्य का अटूट साथ
रह जाऊँ यहीं
सदा के लिए
और ये सजल निर्ममता
वहीँ रहे
उसी भारी सुकून में
नश्वर अमरत्व को पाकर
मुझसे दूर
सपनों की मेहक से परे


(NoteNo part of this post may be published, reproduced or stored in a retrieval system in any form or by any means without the prior permission of the author.)
© Snehil Srivastava

Sunday, January 19, 2014

बिटिया की शादी है An incident















अभी अभी ध्यान आया कि कुछ लिखना अधूरा रह गया था, तो सोचा खाली बैठा हूँ तो उसे पूरा ही कर चलूँ।
रह जाती हैं कुछ बांतें यूँ ही अधूरी। और कोई भी नहीं देता है उन पर ध्यान। बस वो निष्प्राण पड़ी रहती हैं मन के किसी कोने में दुबकी सी। पर यदि हम उन्हें तवज्जो ना दे सकें तो कम से कम ध्यान में तो रख ही सकते हैं।
बात ना तो बहुत पुरानी है ना ही बिलकुल नयी। होती ही रहती है यहाँ वहाँ, हर जगह। हमारे इसी संभ्रांत समाज में।
चारों ओर रौशनी फैली हुई है जैसे रात नहीं दिन है। मद्धम मद्धम सा शोर लगातार ही हो रहा है। हर कोई किसी ना किसी काम में लगा हुआ है। छोटे छोटे बच्चे बस खेले ही जा रहें हैं। फूलों की खुशबू, सतरंगी झालरें और फिल्मों के गाने सुन-दिख रहे हैं। आखिर हो भी ना क्यों इतनी ख़ुशी का माहौल, बिटिया की शादी जो है। सजी संवरी गुड़िया लग रही है आज ये शैतान। इसने तो जैसे एक पल को भी चुप ना होने की कसम खा रखी थी। आज थोड़ी चुपचाप सी, सकुचाती सी, लजाती सी दिख रही है। जैसे जैसे रस्मों- रिवाजों का समय करीब आ रहा है, दिल की धड़कन बस बढ़ रही है जैसे सारा शोर उस धड़कन की आवाज़ के आगे धीमा पड़ गया हो।
खुश हैं सब, ख़ुशी में दादी विवाह-गीत गा रही हैं। बहनें सजी संवरी सी अपनी दीदी को और भी सुन्दर बना देना चाहती हैं। भाई को तो चैन नहीं है कि एक क्षण को भी दम ले सके। सभी हर एक काम के लिए उसे ही आवाज़ दे रहे हैं।
आनन्द और मैं समय से पहले अपनी प्यारी दोस्त रुषाली कि शादी में पहुँच चुके थे। सभी किसी ना किसी काम में व्यस्त थे। ज़ाहिर है हम शादी में लड़की वालों की ओर से थे और हमारे लायक काम भी बहुत सारे थे पर काम करे कौन? रुषाली के छोटे भाई ने हमें एक shared room दे दिया जिससे हम change वग़ैरह कर सकें। पर अभी तो बारात के आने में थोड़ा समय था तो हमनें सोचा चलो इंतेज़ामात का जाएज़ा लिया जाये और हम अपना सामान अलमारी में रखकर बाहर आ गए। सब कुछ बहुत सुन्दर आँखों को सुकून देने वाला बगिया की तरह था। शादी थी, ख़ुशी का माहौल था और हम दो निठल्ले थे। हम यहाँ वहाँ घूमकर वापस अपने कमरे में आ गये। तो देखा सामने एक 40 - 45 बरस के अंकल बैठे हुए थे। देखने में शालीन, संभ्रांत से थे। पूछने पर पता चला रुषाली के मामाजी लगते हैं। थोड़ी बातें हुई, जैसे हम कहाँ काम करते हैं, रुषाली को कैसे जानते हैं वगैरह वगैरह। फिर हम दोनों main function के लिए तैयार होने लगे।

कुछ मिनटों बाद फ़ोन बजा, फ़ोन ना मेरा था ना ही आनन्द का। अंकल अपने में ही मगन थे ना जाने क्या सोच रहे थे और उनका फ़ोन अपनी पूरी शक्ति के साथ उन्हें जगाना चाहता था, परन्तु हर कोशिश में असफल हो रहा था। आनन्द ने उन्हें याद दिलाने की कोशिश की कि उनका फ़ोन बड़ी तत्परता से उनसे कुछ तो कहना चाहता है। आखिरकार फ़ोन की 7 - 8 मिन्नतों के बाद उन्हें अपने निष्प्राण साथी पर कुछ तरस आ गया जो कुछ पलों के लिए जीवंत हो उठा था।

अंकल: "हैलो, कौन?"
(हाँ, मैं राजीव शर्मा।)

अंकल: "अच्छा अच्छा, राजीव भाई। कहो क्या हाल चाल हैं? भाभी जी कैसी हैं और बच्चे?"
("हाँ - हाँ, सब ठीक हैं और आप बताइये आपके क्या हाल हैं। कहाँ रहते हैं? बहुत दिनों से मुलाक़ात नहीं हुई आपसे तो सोचा फ़ोन ही कर लूँ")


अंकल: "अरे कहीं नहीं राजीव भाई। शादी ब्याह का मौसम है तो थोड़ी व्यस्तता बढ़ गयी है।"
("हाँ ये तो है। तो किसी शादी में हैं क्या?")

अंकल: "जी हाँ। बिलकुल सही पकड़ा आपने।"
("शादी में गए हैं तो आज तो थोड़ा बहुत.... अरे आप समझ रहे हैं ना? हा हा हा हा" )

अंकल: "नहीं नहीं राजीव कैसे बातें करते हो? यार बिटिया की शादी है मामा हूँ मैं उसका........"

इस एक वाक्य ने हम दोनों के हृदयों में उन अंकल जी के प्रति उनकी इज्जत को बढ़ा सा दिया था तभी-

"………बस 2 पैक पिया है, हा हा हा हा"
("हा हा हा हा.…हा हा हा हा")

हम दोनों अवाक थे। इन दो वाक्यों की दूरी में इतना अंतर भी हो सकता था ये मैंने तो कभी ना सोचा था।
शादी की सारी रीतियाँ एक तरफ निभायी जा रही थीं और समाज की (कु)रीतियाँ.....?
ये प्रश्न आज भी मुझमें बहुत गहरे तक बैठा हुआ है जिसका उत्तर शायद कहीं नहीं है।
क्या आपके पास है इस प्रश्न का उत्तर?














(NoteNo part of this post may be published, reproduced or stored in a retrieval system in any form or by any means without the prior permission of the author.)
© Snehil Srivastava

Tuesday, January 14, 2014

खून का रंग Why blood...?


मरे हुए खून का रंग काला होता है
ये कोई नयी बात तो नहीं
जब भी हुई है निरीह की हत्या
बदलता कुछ भी तो नहीं
खून के कतरे का यूँ टपकना
जैसे कही कुछ बाँतें अनकही
जब ये जम कर काला पड़ जाता है
इतना भी तो सख्त लगता नहीं

आज भी कल भी और सदा से ही
ये दिल क्यूँ दहकता नहीं
क्या जब अपना खून बहेगा
तब होगी बातें कुछ सही
रात से काला खून का ये रंग
सुबह की मेहक से मिलता क्यूँ नहीं
मरे हुए खून का रंग काला होता है
ये कोई नयी बात तो नहीं


(NoteNo part of this post may be published, reproduced or stored in a retrieval system in any form or by any means without the prior permission of the author.)
© Snehil Srivastava

Saturday, January 11, 2014

Life is beautiful- a thought


Just now, a stupid thought came to my mind as stupid I am.
What if I try to write something that is not so interesting, that people really don't want to read. What if I could pour my heart out only with no artificiality at all? I know it is nothing but something that my heart is telling me to write. The first sight when a person wakes up in the morning, the sound of something that hits us in some possible ways. The day goes by and so our life to reach the calm night, the black one, the darkest. On many occasions we may think of something unusual, not so pretty but close to our heart. I know today is that same day. When you cry on something or you smile just like that, we call it the voice of our hearts. Those can be other emotions as well. I would say dilemma is also an emotion rather a condition. Here you have two distinct thoughts about a same thing, one to oppose it and the other to support it.

Above lines have no meanings that I know, but I don't feel so to be honest.
In this thought process I went a few years back of my life. It is beautiful, I used to be innocent but no more now (I am serious, though). The question is ‘why’. But that’s okay; what had happened has happened. but those scars don’t seem okay.

I believe life is all beyond past and future. The past is somewhat gone and the future is now, the present. It is important to notice that a single thought may lead to different phases of life. And the ultimate dream is to loving your life, nothing else. You are the one who can decide what life means to you.



(NoteNo part of this post may be published, reproduced or stored in a retrieval system in any form or by any means without the prior permission of the author.)
© Snehil Srivastava

Monday, January 6, 2014

असत्य की जीत या हार? In search of Truth


वास्तविकताओं से परे रहना सरल होता है, परन्तु ये सरलता सामान्यतया क्षणिक ही हुआ करती है और जो भी कोई इन खोयी हुई सच्चाईयों का पीछा करता है उसकी राह इतनी भी सरल नहीं होती। कभी कभी पीछा करने वाला कहीं खो जाता है। कहाँ, ये जानना थोड़ा सा मुश्किल है। जितना सारगर्भिक उन वास्तविकताओं का सामने आना है उतना ही उद्देश्यपूर्ण उन्हें सामने लाने वाले का सम्मान भी है।

सम्मान एक ऐसा शब्द है जो सत्य के साथ गुथा सा हुआ है। अगर इन्हें एक दुसरे का पूरक कहा जाये तो शायद गलत ना होगा। हमारी ऐसी अवधारणा बनी हुई है कि हम सच का सम्मान करना ही नहीं चाहते। इसकी एक बड़ी वजह खुद में रोपित असत्य की पौध है जो आज एक बड़े वृक्ष में तब्दील हो चुकी है और जिसे सहारा मिला है खुद के भंगुर वजूद की तत्परता का। यहाँ एक बात ध्यान में रखनी चाहिए कि ये कोई आज की आधुनिक शैली नहीं है जो हमारे जीवन में कहीं से बस यूँही आ गयी है बल्कि ये सदा से चली आ रही स्वयं को श्रेष्ठ साबित करने की अंधी दौड़ है जिसे जीतने के लिए कुछ भी क्यूँ ना करना पड़े।

हमें किसी घटना को, किसी बात को बस यूँ ही सत्य/ असत्य की श्रेणी में नहीं रख देना चाहिए। उसके सभी तत्वों को निश्छल भाव से ध्यानपूर्वक देखना एक महत्वपूर्ण कदम है। स्वयं को बिना किसी भी पक्षपात के स्थिर रखना अत्यंत आवश्यक होता है। अन्यथा वास्तविकता खोती चली जाती है। उलझनों को सुलझाना एक संयम का काम है जिसमे इच्छा के विपरीत समय थोड़ा अधिक लग सकता है परन्तु परिणाम सदैव सुन्दर होता है। यदि हमारे लिए नहीं तो दूसरे के लिए। अंततः हमारा ध्येय भी तो सत्य को पाना ही है ना।

आप इसे मोड़ और मरोड़ सकते हैं… आप इसका बुरा और गलत प्रयोग कर सकते हैं… लेकिन ईश्वर भी सत्य को बदल नहीं सकते हैं। ~ माइकल लेवी
You can bend it and twist it… You can misuse and abuse it… But even God cannot change the Truth. ~ Micheal Levy


(NoteNo part of this post may be published, reproduced or stored in a retrieval system in any form or by any means without the prior permission of the author.)
© Snehil Srivastava

Saturday, January 4, 2014

पर आज मुझे लगता है Par aaj mujhe lagta hai - and My heart says


मैं आती भी तो भला कैसे, जब तुमने पुकारा ही नहीं,
साथ निभाती भी मैं किसका, जब तुमसे कोई सहारा ही नहीं।
तुम अपनी मशरूफ़ियों में मशरूफ रहे
मैं हर पल तुम्हारी यादों में मगशूल रही
तुम उलझे ही रहे सदा अपनी उलझनो में
मैं हमेशा तुम्हारे साथ से महरूम रही
समझती रही कि होगी तुम्हारी भी मजबूरियां बहुत
सहती रही मैंने रुसवाइयां बहुत
तुम अपने तुम में ही रह गए, मैं अपने आप में सिमटती रह गयी
रास्ते उलझते रह गये, दूरियां बढ़ती चली गयीं
कभी कुछ हफ़्तों की चुप्पी, कभी महीनों का सूनापन
कभी उन दूरियों का लम्बा सा कारवां बनता चला गया
फिर अचानक से कभी तुम सामने आ जाते
और ऐसा लगता कि तुम कहीं गए ही नहीं थे
बस यहीं थे, मेरे करीब।
पर आज मुझे लगता है,
कि तुम मेरे नहीं थे, कहीं नहीं थे, कभी नहीं थे।
                                                                                                - Anonynous



(NoteNo part of this post may be published, reproduced or stored in a retrieval system in any form or by any means without the prior permission of the author.)
© Snehil Srivastava

Friday, January 3, 2014

मासूमियत का एहसास Pain is unreal


उन स्याह हो चुके चोटों के निशान
बहुत गहरे तक बसे हैं आज भी
जिन जिन को खोया है इस दिल ने
काश कोई पूछ लेता इसका दर्द कभी

उस मासूमियत का एहसास मीठा
लगता है कहीं अब खो सा गया
जब सोचता हूँ उसे फिर एक बार
तो आँखों से बहता है दरिया

काश एक विराम से कहकर
क्षण भर रुका हो इतिहास विश्व
फिर ना लौटें ह्रदय अश्रु
ना कभी हो रक्तिम चित्त

फिर ना हों सूनी दोपहरी
ना घनी फिर रात हो
है प्रश्न ये आधा अधूरा
ना कोई उत्तर ज्ञात हो

(NoteNo part of this post may be published, reproduced or stored in a retrieval system in any form or by any means without the prior permission of the author.)
© Snehil Srivastava

Wednesday, January 1, 2014

जीत या हार


जब दूर कहीं रूप तेरा
कोहरे में दिखायी देता है
तू रहे या न रहे
तेरा हर लफ्ज़ सुनायी देता है
उस सूफी की कही हर बात को
पराया समझ लेता हूँ
उसकी आँखों से जो देखा है तुम्हे,
ये तू नहीं एक धोखा है।

राह पर चलकर है लगा
दुश्वारियों का कोई पार नहीं
तुझको पाकर, तुझमें खोना
जीवन हो ये तो बेकार नहीं
अब तुम्हारी ही वजह से
दुनिया के गम सेह लेता हूँ
पर इस जीत की वजह से
बड़ी कोई हार नहीं।

(NoteNo part of this post may be published, reproduced or stored in a retrieval system in any form or by any means without the prior permission of the author.)
© Snehil Srivastava

सुकून की आहट Voice of serenity


जब सुकून की आहट धीमे से सुनाई दे
और रह रह के आँखों से पानी के झरने दिखायी दे
तो ये ना समझना कि मन उदास है
जिस्म ग़र हो दूर भी, तो रूह तेरे पास है

यूँ एकाकी बैठे हुए, सौ लफ्ज़ कौंध जाते हैं

मेरे दिल में हसीं ख्वाब आ आकर लौट जाते हैं
तुझे देखा था तब मैंने जब दूर तलक रात थी
उजाले सी खुश्बू लिए तेरी कही हर बात थी

अब इस खुश्बू की मेहक सुकून तो नहीं देती है

इस सर्द हुए मौसम में दिल को जला देती है
जो हुआ सो हुआ मुझे इसपर कोई ताप नहीं
दिल ही जला मन तो नहीं, पहला है जनम सात नहीं

अब क्या करूँ, क्या ना करूँ सोचता हूँ तो हंस लेता हूँ

इस कुहासे से भरी रात को अपना सा बना लेता हूँ
ये रात मेरी हमराज़ क्यूँ है अब तक ना समझ पाया मैं 
ख़ुशी ना बाटें ना ही सही, ये रात मेरा हर दर्द सुने


(NoteNo part of this post may be published, reproduced or stored in a retrieval system in any form or by any means without the prior permission of the author.)
© Snehil Srivastava