Path to humanity

Path to humanity
We cannot despair of humanity, since we ourselves are human beings. (Albert Einstein)

Tuesday, August 26, 2014

आखिरी मुक़ाम Last life



क्या करूँ इस दिल का हर रोज़ मोहब्बत करता है

तन्हाई में रहता है और खुद से बातें करता है

यादों की ग़र बात कहूँ बस यूँ ही जुदा हो जाती हैं

बिन यादों के हर मुक़ाम अधूरा रहता है



मुक़ाम तन्हाइयों का नहीं ज़िन्दगी का हुआ करता है

इनसे मिलने को तो अँधेरा भी डरता है

तन्हाईयाँ जब भी मिलती हैं पत्थर सी हो जाती है

कहने को तो खुदा पत्थरों में जिया करता है




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© Snehil Srivastava

कुछ सवाल What If



तुम्हारी हर सजा मुझे मंज़ूर दिल से

मोहब्बत की सजा मैं दूँ तुम्हें फिर क्या हो

माना मेरी भी कुछ ख़ता रही होगी शायद

नफ़रत मैं भी करूँ बेवजह फिर क्या हो


अब तो शाम हुई, उदासी का आलम भी है

मैं तुम्हें सोचकर मुस्कुराऊँ फिर क्या हो

चाहकर भी तुम्हें भूल ना पाऊँ मैं

तुम मेरी नज़्म में ढलती जाओ फिर क्या हो



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© Snehil Srivastava

Wednesday, August 20, 2014

बड़ी सोच- Only 'Think big'


नींद। - नींद।
मैं भी था वहाँ पे...औरों की तरह ही था...उन्हीं जैसा...
लेकिन हमेशा कहता था..."और लोगों की तरह थोड़ी ना हूँ मैं..."

मैंने ना सोच रखा था..कुछ बड़ा करने को पैदा हुआ हूँ...जरूर।

अपने को मैंने किस्सी से कम तो कभी नहीं...हाँ थोड़ा ज्यादा जरूर समझा है...बड़ा समझा है...

मुझे हमेशा लगता था...सारी दुनिया कितनी मतलबी है...

और मैं...खैर...

मै खड़ा सोचता रहा...अपनी गाड़ी से उतरा तक नहीं।।।

उस भिखारी को सड़क से खुरच कर निकालना पड़ा...ऐसा छपा था अख़बार में।

बड़ा छोटा महसूस हुआ!! बस गाड़ी से उतर कर उसे जगा कर कह देता कल रात..."साले! साइड होके सो...कोई ठोक के चला जायेगा..."

                                                                          - Lokesh 'Human@core'


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Thursday, August 14, 2014

राजकाज


खाना - खाना
"घर ना हो गया...जीवन का जंजाल हो गया"...कहता हुआ वो घर से निकला...साइकिल उठाई...गेट खोला...और पंदले मारता बाहर निकल गया।

"मै ना लाऊं सब्जी तो क्या कोई खाना नहीं खायेगा...मुझे क्या सब्जी लाने के लिए घर में रखा है??" इसी गुस्से भरे ख़याल को अपने मन में सोचता बोला..." भैया 2 किलो आलू...1 किलो प्याज...टमाटर 250 ग्राम ही देना...आज पैसे कुछ कम मिले हैं...और हाँ कल की सब्जी में आधे आलू सड़े निकले...आज एक भी ख़राब निकला तो तो कटा हुआ वापिस ले आऊंगा...!"

"कितने हुए?"

"कुछ कम कर लो!"

वापिस मुड़ गया...वो...शायद ध्यान भटक गया पैसे गिनने में...और एक ठोकर लगी...वो बेहोश...

तीसरे दिन जब आँख खुली तो माँ रोती हुयी नज़र आई...वो बोला " माँ भूख लगी है...कुछ दो...और रो मत...ये सब तो राजकाज है!"

खाना बना था आज भी...!!

                                                                - Lokesh 'Human @core'


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बेटियां- A girl child


पुराने समय से एक अवधारणा चली आ रही है कि जो जितना करुणाशील है, जितना सहिष्णु है; समाज उसे पीछे धकेल देना चाहता है अपनी रीतियों से, अपनी कुरीतियों से परन्तु यदि इतिहास के पन्नो को पलट कर एक गहरी नज़र डालें तो हम पाएंगे, ये सारी दानवी शक्तियां कभी सफल न हो सकी हैं. हाँ ये ज़रूर है इन्हें गाहे बगाहे आंशिक सफलता ज़रूर मिल जाती है.

इस बात की पुष्टि के लिए बेटी से बेहतर उदहारण कुछ हो ही नही सकता. बेटी जो कभी मातृत्व की छाँव देती हैं तो कभी बहन बनकर एक अनुपम साथी होती है. भार्या होती है तो जीवन के हर विष को खुद पी लेना चाहती है और यदि मित्र बनती है तो हर पग को सचेत करती है. और पुरुष प्रधान  समाज हर स्तर पर स्वयं को पहली सीढ़ी पर खड़ा देखना  है. एक क्षण को कल्पना करते हैं- बेटी विहीन विश्व की. कुछ भी देख सकें हैं आप सभी? विश्व का सृजन उसका अस्तित्व एक अंधकारमय अनुभूति देता है. इस  बात की कल्पना से ही मन सिहर उठता है.

 यदि ऐसा है तो फिर क्यों बेटी का सम्मान नहीं किया जाता। नारीत्व एक शक्ति है समाज की, फिर क्यों समाज उस पर घिनौने कृत्यों के पत्थरों से वार करता है. उसे चोट पहुंचता है. उसे नष्ट करता है.

सबसे पहला- जन्म.
बहुधा सुनने में आता है की लड़की हुई तो कम ख़ुशी हुई, लड़का होता तो बात कुछ और होती. आखिर घर का चिराग होता है लड़का. तो क्या बेटियां वो काम नहीं कर सकतीं जो एक लड़का करता है या कर सकता है? बिलकुल कर सकती हैं. आखिर कर ही तो रही हैं. शिक्षा, विज्ञान, खेलकूद, राजनीति, सेना, अंतरिक्ष. सभी मोर्चो पर बेटियां कहीं बेहतर सभीत हुई हैं. इसलिए बेटी के जन्म पर सबसे अधिक खुश होना होगा हमें तभी एक संपूर्ण विश्व की परिकल्पना संभव होगी.

सम्मान का दूसरा रूप है- सामजिक स्तर. हम कितने भी आधुनिक क्यों ना हो जाएं परन्तु जब बेटियों को समाज में बराबर की हिस्सेदारी की बात आती है तो लोग मौन हो जाते हैं. कुप्रथाओं के बानिग हर संभव प्रयास किया जाता है कि बेटियां सदेव बेटों से कमतर रहे. अरे उन्हें भी समान अधिकार है कदम से कदम मिलाकर चलने का, अपना शीष ऊँचा रखने का.

तीसरा और सबसे महत्त्वपूर्ण सम्मान एक बेटी का तभी हो सकता है जब उसे बेटी
कहा जाये. माता पिता भी कभी दुलार में कह जाते हैं 'तू तो मेरा बेटा है'. नहीं, बेटियां गर्व से बेटियां हैं. इसी में उनका अस्तित्व निहित है.

यदि बेटी माँ दुर्गा के रूप में सृजन की पोषक हैं तो यही रूप समाज के राक्षसों को मृत्यु भी प्रदान कर सकता है.


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© Snehil Srivastava

Sunday, August 10, 2014

फिर याद आयी यारों की यारी- Friends Forever


आज फिर याद आयी यारों की यारी
वो ज़िन्दगी हमारी मस्ती से भरी
पुराने किस्सों में बीतें रातें हमारी
बेफिक्र होकर जीने की ज़िद वो हमारी
बारिश की बूंदों से वो भिगोना तुम्हे
खुद भी गिरना और गिराना तुम्हे
और बस हँसकर भुला देना वो भूलें हमारी
आज फिर याद आयी यारों की यारी

तुम्हारे साथ रातों में तारों को गिनना
और फिर छोटे बड़े सपनों को बुनना
हाथों में हाथ डाल दूर हुई मुश्किलें हमारी
आज फिर याद आयी यारों की यारी
आज अलग ही सही पर जुड़ीं हैं राहें हमारी
कुछ तुम चलो, कुछ हम चलें- मिटा दें ये दूरियां सारी
दोहराएंगे फिर किस्से पुराने, बातें सुहानी
दुआ करें कभी ना टूटे ये यारी हमारी
आज फिर याद आयी यारों की यारी

                                                                        --Neha Bakshi

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