उन नमक सी बूंदों का यूँ बहना
कुछ याद दिलाता है मुझे
कि जैसे सागर को मिलने को
बेचैन हो ये
उसमें समां जाने को
खुद का अस्तित्व धूमिल कर
उसका हो जाने को
परन्तु इस त्याग की वजह
कोई बताये मुझे
अन्यथा ये कहीं अज्ञात भंवर से
मैत्री भाव न सजा बैठें
सत्य को असत्य की परतों से
ढांक देने पर भी
उसका विक्षोभ क्षणिक नहीं हो जाता
नर्म बूंदों का बहना भी
कभी व्यर्थ नहीं जाता
नियति अगर सागर संग मिलकर
प्रहसन रच भी रही है
तो क्या इसे अपना अंत मानकर
उस अनंत मिलन को नकार देना चाहिए
आखिर ये नमक सी बूँदें-
हंसी ठिठोली की भी तो हो सकती हैं
गालों पर नरम एहसास लिए हुए।
आंसुओं का अर्थ,
क्या कोई समझ सका है?
'मैं' तो नहीं.....आखिर इंसान जो ठहरा।
Picture credit: nikhila-churia.blogspot.com
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© Snehil Srivastava
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