आज मैंने अपना लोहे का संदूक खोला
पहले दादी इसमें
अपनी दुनिया जहांन की चीजें रखती थीं
अलीगढ़ का मजबूत ताला लगाकर
और कुंजी अपने गले में लटकाकर
एक बार मैंने इसी सन्दूक में
एक और दो रुपये के नोटों की
करारी गड्डियां देखी थीं
दादी त्योहारों में
सबको एक-दो नोट दे दिया करती थी
कि जाओ मिठाई खा लेना
और हम हँसते, कहते
"दादी, दो-चार रुपयों में अब कुछ नहीं मिलता"
कुछ पुराने सिक्के भी रखे थे दादी ने इसमें
अब तो वो चलते ही नहीं
पर हैं बड़े खूबसूरत
छोटे छोटे से
कुछ एक पुरानी किताबें भी रखी हुई थी
हनुमान चालीसा, दुर्गा सप्तशती
मेरी दादी को उर्दू बड़ी अच्छी आती थी
अलिफ़ बे ते
हम सुनते और हँसते
हम जब भी दादी से संदूक की कुंजी मांगते
वो हमें डपट देतीं
फिर एक दिन दादी चली गयीं
मुझे कुंजी मिल गयी
आज सालों बाद
पहली बार मैंने संदूक खोला है
वही करारे नोटों की गड्डी, कुछ पुराने सिक्के
किताबें भी तर ऊपर जस की तस रखी हैं
कितना अच्छा होता
ये कुंजी मेरे पास ना होती
और मैं कभी संदूक ना खोल पाता
हाँ कभी चुपके से
इसमें झाँक जरूर लेता
शायद कुछ खोया मिल जाता
मेरा अपना।
पहले दादी इसमें
अपनी दुनिया जहांन की चीजें रखती थीं
अलीगढ़ का मजबूत ताला लगाकर
और कुंजी अपने गले में लटकाकर
एक बार मैंने इसी सन्दूक में
एक और दो रुपये के नोटों की
करारी गड्डियां देखी थीं
दादी त्योहारों में
सबको एक-दो नोट दे दिया करती थी
कि जाओ मिठाई खा लेना
और हम हँसते, कहते
"दादी, दो-चार रुपयों में अब कुछ नहीं मिलता"
कुछ पुराने सिक्के भी रखे थे दादी ने इसमें
अब तो वो चलते ही नहीं
पर हैं बड़े खूबसूरत
छोटे छोटे से
कुछ एक पुरानी किताबें भी रखी हुई थी
हनुमान चालीसा, दुर्गा सप्तशती
मेरी दादी को उर्दू बड़ी अच्छी आती थी
अलिफ़ बे ते
हम सुनते और हँसते
हम जब भी दादी से संदूक की कुंजी मांगते
वो हमें डपट देतीं
फिर एक दिन दादी चली गयीं
मुझे कुंजी मिल गयी
आज सालों बाद
पहली बार मैंने संदूक खोला है
वही करारे नोटों की गड्डी, कुछ पुराने सिक्के
किताबें भी तर ऊपर जस की तस रखी हैं
कितना अच्छा होता
ये कुंजी मेरे पास ना होती
और मैं कभी संदूक ना खोल पाता
हाँ कभी चुपके से
इसमें झाँक जरूर लेता
शायद कुछ खोया मिल जाता
मेरा अपना।
-Snehil Srivastava
Picture credit: www.chandan2012-blogspot-com
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© Snehil Srivastava
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