Path to humanity

Path to humanity
We cannot despair of humanity, since we ourselves are human beings. (Albert Einstein)

Monday, November 23, 2015

'संदूक'
The Box


आज मैंने अपना लोहे का संदूक खोला
पहले दादी इसमें
अपनी दुनिया जहांन की चीजें रखती थीं
अलीगढ़ का मजबूत ताला लगाकर
और कुंजी अपने गले में लटकाकर
एक बार मैंने इसी सन्दूक में
एक और दो रुपये के नोटों की
करारी गड्डियां देखी थीं
दादी त्योहारों में
सबको एक-दो नोट दे दिया करती थी
कि जाओ मिठाई खा लेना
और हम हँसते, कहते
"दादी, दो-चार रुपयों में अब कुछ नहीं मिलता"
कुछ पुराने सिक्के भी रखे थे दादी ने इसमें
अब तो वो चलते ही नहीं
पर हैं बड़े खूबसूरत
छोटे छोटे से
कुछ एक पुरानी किताबें भी रखी हुई थी
हनुमान चालीसा, दुर्गा सप्तशती
मेरी दादी को उर्दू बड़ी अच्छी आती थी
अलिफ़ बे ते
हम सुनते और हँसते
हम जब भी दादी से संदूक की कुंजी मांगते
वो हमें डपट देतीं
फिर एक दिन दादी चली गयीं
मुझे कुंजी मिल गयी
आज सालों बाद
पहली बार मैंने संदूक खोला है
वही करारे नोटों की गड्डी, कुछ पुराने सिक्के
किताबें भी तर ऊपर जस की तस रखी हैं
कितना अच्छा होता
ये कुंजी मेरे पास ना होती
और मैं कभी संदूक ना खोल पाता
हाँ कभी चुपके से
इसमें झाँक जरूर लेता
शायद कुछ खोया मिल जाता
मेरा अपना।

-Snehil Srivastava
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© Snehil Srivastava

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