Path to humanity

Path to humanity
We cannot despair of humanity, since we ourselves are human beings. (Albert Einstein)

Tuesday, August 30, 2016

वो शाम
That evening which never happened!

आज वो शाम फिर आई है
उदासी संगिनी है जिसकी
और जिसके मायूस चेहरे पर
हंसी, बीती हुई सी बात लगती है
हाँ ये वही शाम है जिसका तन
अपने होने के एहसास से
भरमा जाता है, तो कभी शरमा भी जाता है
काँपते होठों पर इस शाम ने
अनकहे एहसासों को जज़्ब कर रखा है
जो आँखों के मोती बनकर बस
ढुलके जा रहे हैं। नरम उँगलियों पर
इसी शाम ने उस छुअन को महसूस किया था।
और तब ये शाम
जाने क्यों हंस पड़ी थी।
आज वो शाम फिर आई है।
आज वो शाम...फिर न जाने के लिए।
-Snehil Srivastava
Picture credit: www.flickr.com
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© Snehil Srivastava

'कई दफ़ा...'
Human again!

उस ताख पर लिपटी कालिख
मन का उजाला लिए हंसती थी
मैंने महलों को तो जाने कितनी दफ़ा
रोते हुए देखा है।
खुदा उन घरों में बसता है,
जहाँ मोहब्बत रहती है।
मैंने सर परस्तों को जाने कितनी दफ़ा
नफरत करते हुए देखा है।
बेजा हुई हर वो धड़कन
जिसने इंसानियत से मुंह है मोड़ा
मैंने फरिश्तों को जाने कितनी दफ़ा
क़त्ल करते हुए देखा है।
रूह को सुकून मिल जाता है
बस एक बार के इंसान होने से
मैंने जानवरों के दिल में
इंसान बनते हुए देखा है।

-Snehil Srivastava
Picture credit: www.wakingtimes.com
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© Snehil Srivastava