आज वो शाम फिर आई है
उदासी संगिनी है जिसकी
और जिसके मायूस चेहरे पर
हंसी, बीती हुई सी बात लगती है
हाँ ये वही शाम है जिसका तन
अपने होने के एहसास से
भरमा जाता है, तो कभी शरमा भी जाता है
काँपते होठों पर इस शाम ने
अनकहे एहसासों को जज़्ब कर रखा है
जो आँखों के मोती बनकर बस
ढुलके जा रहे हैं। नरम उँगलियों पर
इसी शाम ने उस छुअन को महसूस किया था।
और तब ये शाम
जाने क्यों हंस पड़ी थी।
आज वो शाम फिर आई है।
आज वो शाम...फिर न जाने के लिए।
उदासी संगिनी है जिसकी
और जिसके मायूस चेहरे पर
हंसी, बीती हुई सी बात लगती है
हाँ ये वही शाम है जिसका तन
अपने होने के एहसास से
भरमा जाता है, तो कभी शरमा भी जाता है
काँपते होठों पर इस शाम ने
अनकहे एहसासों को जज़्ब कर रखा है
जो आँखों के मोती बनकर बस
ढुलके जा रहे हैं। नरम उँगलियों पर
इसी शाम ने उस छुअन को महसूस किया था।
और तब ये शाम
जाने क्यों हंस पड़ी थी।
आज वो शाम फिर आई है।
आज वो शाम...फिर न जाने के लिए।
-Snehil Srivastava
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© Snehil Srivastava