निरंकुश है वो जिसमेँ प्रेम है
कि जैसे गंगा
कि जैसे राधा
इतने पवित्र हैं दोनों
कि जैसे ईश्वर का रूप हो इनमें
आधा आधा
एक निकली थी शिव जटाओं से
दूजी रहती थी श्यामल छाँव में
एक जीवनदायनी गंगा है
दूजी बड़भागिनी सुनंदा है
एक भागीरथी के तप का प्रमाण है
दूजी का प्रेम मनोहर अभिमान है
निरंकुशता ही जीवन का सार है
खोखले जीवन पर कटु प्रहार है
प्रेम साधना का ही प्रतिरूप है
कभी डमरू तो कभी मुरली में ढला रूप है
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© Snehil Srivastav
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