कहते हैं, दर्शन, दार्शनिक जानते हैं
और वे जीवन का सारा रहस्य
कुछ-कुछ कर पहचानते हैं
परन्तु,
ना मैंने दर्शन जाना और ना ही दार्शनिक को
फिर क्यूँ लगता है-
तुम, मेरा जीवन और जीवन-दर्शन हो
जब -जब किया तुम्हें दूर
सोचा अब शायद कुछ परिवर्तन हो
और भी पास होता गया
शायद यही मेरा समर्पण हो
जब उस पल,
खारे पानी का एहसास हुआ
तब मैंने जाना , तुम्हें पाया
और विकसित, विश्वास हुआ
हर बूँद को अंजलि में भरकर सोचा
अब तो मेरा तर्पण हो...
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