"दूर बहुत है
'घर' मेरा और तुम्हारा
वजहें इसकी
कहने को तो हैं कई सारी
कुछ झूठी मेरी
कुछ सच्ची तुम्हारी
झूठ है ये-
रोटी घर की ही
होती है मुलायम?
सच है ये
देती है ख़ुशी
यदि मिला हो, खुद का जतन?
घर से दूर रहना
किसे रास आता है
और फिर वापस लौट आना
कैसी आस दिलाता है
आशा-
एक नए घर की
सुखमय जीवन की.
परन्तु!
समय की शक्ति
घर को दूर-
और दूर ले जाती है
पर इच्छाशक्ति
मनस की
पैरों को पुरजोर
आगे बढाती है
नहीं रुकते हैं पाँव
चाहे
कितना भी रक्त निकले
और घर पहुँचने का रस्ता
कितना, क्यूँ ना सख्त निकले
और फिर
वही पंछी, वही कलरव
और वही छाँव
जिसके लिए
दौड़ जाते थे हम
नंगे पाँव
फिर माँ की आवाज़
डांटती, दुलारती और वही आस
जैसे, घर हो ना जाने कितना पास."
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