Path to humanity

Path to humanity
We cannot despair of humanity, since we ourselves are human beings. (Albert Einstein)

Monday, August 22, 2011

जीवन का मर्म

प्रकृति कितनी विशाल है
जैसे ये सारा आकाश,
ये फैला हुआ पानी.
है धुप एक क्षण को
फिर आई है ये छांव
उन बादलों के मन से.

ये नमी, बस अभी रो देगी
या फिर कहेगी
रुको धूप! रहने दो मुझे
यूँ ही नम
पर शायद ये है
बस एक भरम

इस मन के कितने हाल हैं
जैसे ये सारी आस
और ये जीवन की कहानी
है मूक एक क्षण को
फिर आये हैं शब्द
न जाने किस गहरे वन से.

ये हसीं, बस अभी कह देगी
या फिर चुप रहेगी
यूँ चुप रहकर कितना कुछ है
कहा उसने
शायद यही है
इस जीवन का मर्म.

Tuesday, August 16, 2011

अकारण!!


ये रंग तुम्हारे- प्रकृति
हर क्षण क्यूँ बदलते हैं
क्या ये कोई नियम है
या बस अकारण!!
ऐसा तुम खुद चाहो-
लगता नहीं मुझे.

हर समय, ए समय
तू बदल क्यूँ जाता है
क्या ये कोई वचन है
या बस अकारण!!
ऐसा तुम खुद करो-
संशय है मुझे.

ये रूप तुम्हारा, जीवन
इतना सारा क्यूँ है
क्या ये कोई प्रहसन* है
या बस अकारण!!
ऐसा तुम खुद करो
आश्वस्त** नहीं हूँ मैं.

और 'मैं' तुम सबसे
मिलकर बना हूँ
फिर भी 'एक' हूँ
क्या ये कोई भरम है
या बस अकारण!
तुम सब हो इसका कारण
विश्वास है मुझे...





*- play, नाटक, farce comedy, satire
**- confirm, sure