Path to humanity

Path to humanity
We cannot despair of humanity, since we ourselves are human beings. (Albert Einstein)

Sunday, January 19, 2014

बिटिया की शादी है An incident















अभी अभी ध्यान आया कि कुछ लिखना अधूरा रह गया था, तो सोचा खाली बैठा हूँ तो उसे पूरा ही कर चलूँ।
रह जाती हैं कुछ बांतें यूँ ही अधूरी। और कोई भी नहीं देता है उन पर ध्यान। बस वो निष्प्राण पड़ी रहती हैं मन के किसी कोने में दुबकी सी। पर यदि हम उन्हें तवज्जो ना दे सकें तो कम से कम ध्यान में तो रख ही सकते हैं।
बात ना तो बहुत पुरानी है ना ही बिलकुल नयी। होती ही रहती है यहाँ वहाँ, हर जगह। हमारे इसी संभ्रांत समाज में।
चारों ओर रौशनी फैली हुई है जैसे रात नहीं दिन है। मद्धम मद्धम सा शोर लगातार ही हो रहा है। हर कोई किसी ना किसी काम में लगा हुआ है। छोटे छोटे बच्चे बस खेले ही जा रहें हैं। फूलों की खुशबू, सतरंगी झालरें और फिल्मों के गाने सुन-दिख रहे हैं। आखिर हो भी ना क्यों इतनी ख़ुशी का माहौल, बिटिया की शादी जो है। सजी संवरी गुड़िया लग रही है आज ये शैतान। इसने तो जैसे एक पल को भी चुप ना होने की कसम खा रखी थी। आज थोड़ी चुपचाप सी, सकुचाती सी, लजाती सी दिख रही है। जैसे जैसे रस्मों- रिवाजों का समय करीब आ रहा है, दिल की धड़कन बस बढ़ रही है जैसे सारा शोर उस धड़कन की आवाज़ के आगे धीमा पड़ गया हो।
खुश हैं सब, ख़ुशी में दादी विवाह-गीत गा रही हैं। बहनें सजी संवरी सी अपनी दीदी को और भी सुन्दर बना देना चाहती हैं। भाई को तो चैन नहीं है कि एक क्षण को भी दम ले सके। सभी हर एक काम के लिए उसे ही आवाज़ दे रहे हैं।
आनन्द और मैं समय से पहले अपनी प्यारी दोस्त रुषाली कि शादी में पहुँच चुके थे। सभी किसी ना किसी काम में व्यस्त थे। ज़ाहिर है हम शादी में लड़की वालों की ओर से थे और हमारे लायक काम भी बहुत सारे थे पर काम करे कौन? रुषाली के छोटे भाई ने हमें एक shared room दे दिया जिससे हम change वग़ैरह कर सकें। पर अभी तो बारात के आने में थोड़ा समय था तो हमनें सोचा चलो इंतेज़ामात का जाएज़ा लिया जाये और हम अपना सामान अलमारी में रखकर बाहर आ गए। सब कुछ बहुत सुन्दर आँखों को सुकून देने वाला बगिया की तरह था। शादी थी, ख़ुशी का माहौल था और हम दो निठल्ले थे। हम यहाँ वहाँ घूमकर वापस अपने कमरे में आ गये। तो देखा सामने एक 40 - 45 बरस के अंकल बैठे हुए थे। देखने में शालीन, संभ्रांत से थे। पूछने पर पता चला रुषाली के मामाजी लगते हैं। थोड़ी बातें हुई, जैसे हम कहाँ काम करते हैं, रुषाली को कैसे जानते हैं वगैरह वगैरह। फिर हम दोनों main function के लिए तैयार होने लगे।

कुछ मिनटों बाद फ़ोन बजा, फ़ोन ना मेरा था ना ही आनन्द का। अंकल अपने में ही मगन थे ना जाने क्या सोच रहे थे और उनका फ़ोन अपनी पूरी शक्ति के साथ उन्हें जगाना चाहता था, परन्तु हर कोशिश में असफल हो रहा था। आनन्द ने उन्हें याद दिलाने की कोशिश की कि उनका फ़ोन बड़ी तत्परता से उनसे कुछ तो कहना चाहता है। आखिरकार फ़ोन की 7 - 8 मिन्नतों के बाद उन्हें अपने निष्प्राण साथी पर कुछ तरस आ गया जो कुछ पलों के लिए जीवंत हो उठा था।

अंकल: "हैलो, कौन?"
(हाँ, मैं राजीव शर्मा।)

अंकल: "अच्छा अच्छा, राजीव भाई। कहो क्या हाल चाल हैं? भाभी जी कैसी हैं और बच्चे?"
("हाँ - हाँ, सब ठीक हैं और आप बताइये आपके क्या हाल हैं। कहाँ रहते हैं? बहुत दिनों से मुलाक़ात नहीं हुई आपसे तो सोचा फ़ोन ही कर लूँ")


अंकल: "अरे कहीं नहीं राजीव भाई। शादी ब्याह का मौसम है तो थोड़ी व्यस्तता बढ़ गयी है।"
("हाँ ये तो है। तो किसी शादी में हैं क्या?")

अंकल: "जी हाँ। बिलकुल सही पकड़ा आपने।"
("शादी में गए हैं तो आज तो थोड़ा बहुत.... अरे आप समझ रहे हैं ना? हा हा हा हा" )

अंकल: "नहीं नहीं राजीव कैसे बातें करते हो? यार बिटिया की शादी है मामा हूँ मैं उसका........"

इस एक वाक्य ने हम दोनों के हृदयों में उन अंकल जी के प्रति उनकी इज्जत को बढ़ा सा दिया था तभी-

"………बस 2 पैक पिया है, हा हा हा हा"
("हा हा हा हा.…हा हा हा हा")

हम दोनों अवाक थे। इन दो वाक्यों की दूरी में इतना अंतर भी हो सकता था ये मैंने तो कभी ना सोचा था।
शादी की सारी रीतियाँ एक तरफ निभायी जा रही थीं और समाज की (कु)रीतियाँ.....?
ये प्रश्न आज भी मुझमें बहुत गहरे तक बैठा हुआ है जिसका उत्तर शायद कहीं नहीं है।
क्या आपके पास है इस प्रश्न का उत्तर?














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© Snehil Srivastava

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