Path to humanity

Path to humanity
We cannot despair of humanity, since we ourselves are human beings. (Albert Einstein)

Tuesday, November 22, 2011

निःशब्द, स्थिर, नितांत


सामने खड़ी इस दीवार की
उजड़ी-टूटी पपड़ियाँ
कितनी नरम हैं
और इसकी ईटें
कभी सुर्ख लाल रही होंगी-
जब उन्हें पानी से
भिगोया गया होगा.
अब ये सूखकर
धुंधली हो चली हैं
जाने कब
ये दीवार गिरकर टूट जाएगी
पर जब तक है,
खुद के सहारे खड़ी है
निःशब्द, स्थिर, नितांत
स्वयं के विश्वास पर
ज़मीन से जुड़ी हुई.

इस दीवार पर कितनों ने
पान की पीक
और जहान की सारी
गन्दगी डाल रखी है
ऊपर तीन कीलें
बहुत गहरे तक
धसी हुई हैं
इन्हें निकालकर देखने पर
वही सुर्ख लाल रंग
आज भी नज़र आ जाएगा
सारी दुनिया का वैमनश्य
खुद में जज्ब कर
ये दीवार
अब टूटना चाहती है
पर हो सकता है
किसी और को
अपने ठौर के लिए
इसकी तलाश हो
जो इस तक आकर
ख़त्म हो जाये

कोई समझाए इसे
कि बस यूँ टूटकर
इसका जन्म
निरर्थक रह जायेगा
स्वार्थी मानव की तरह
बिना जीवन के मर जायेगा.
इसकी हर एक टूटती ईंट
अन्दर के खोखलेपन से
आत्मसात होकर
जन्म की वास्तविकता को
झुठला रही है
इसका टूटकर बिखर जाना ही बेहतर है
अन्यथा
इसकी छाँव में बैठे हुए
'वह' दबकर कभी भी मर सकता है
और इस दीवार के ह्रदय ने
ऐसा कभी नहीं चाहा
इसने तब खुदा से इबादत की थी
कि इसकी हर एक ईंट
समय कि गति से मिलकर
सुन्दर आशियाने में तब्दील हो जाये
जहाँ खुशियों का ठहराव हो,
और इसका वही सुर्ख लाल रंग
बरक़रार रह सके

ऐसा न हो सका
ये दीवार
अब मर रही है.
उसी मंद मुस्कान के साथ
मरकर भी खुश है ये
कम से कम
कोई इसके कारण
आहत नहीं हुआ
रह गयी
वही पान की पीक
उजड़ी हुई नरम पपड़ियाँ
धसी हुई कीलें
गहरी, बहुत गहरी

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