Path to humanity

Path to humanity
We cannot despair of humanity, since we ourselves are human beings. (Albert Einstein)

Sunday, September 9, 2012

कितने दिन बीत गए...Days are gone...


इस मुलायम घास पर चले
कितने दिन बीत गए
लगता है,
जैसे ये कल की ही तो बात है
पहले पहल मैं सोचता
पैरों में ये ठंडी नमी सी क्यूँ है
किसी ने कहा-
रात, सारी रात रोती रही
अपनी सारी नमी को
ओस की बूंदों का रूप देकर
घास पर संजोती रही
फिर लगता,
किसी के आंसुओ को
यूँ पैरों तले रौंदना
'उसे' कितना दर्द देता होगा
आंसुओ की सारी शीतलता
पैरों को छूकर, मन तक पहुँचती थी
ये एहसास, रात का सुकून है
पर रात तो काली है
सुकून देना उसके बस की बात नहीं
भ्रम था ये मेरा-
रात न होती तो सुबह क्यूँ आती
दोनों हैं बस एक पल के साथी
सुबह शीतल है
तो रात शांति का रूप है
इसकी ये नमी
फिर एक बार घास पर उतर आई है
पर मेरी हिम्मत नहीं
इस पर चलने की
और शायद अब इसकी
कोई ज़रूरत भी नहीं

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