काका कहते हैं,
उसे उनके पुरखों ने लगाया
था
उस ज़माने में लोग पेड़ों
का बड़ा मान करते थे
काका को शुरू शुरू में वो
पेड़ बिलकुल पसंद नहीं था
उन्हें तो बस जेठ बीतने
के बाद
आम के बागों में टिकोरे
तोड़ना पसंद था
कभी कभी जामुन और शहतूत
भी तोड़ लाया करते थे
हाँ, ये बात और है कि परधानिन
बुआ
गोधुर होते ही चौखट पर आ
धमकती थीं
और दादी माँ से लड़ती थीं
एक बार जब छोटे काका का
बुखार सर पर चढ़ गया
तो उसी नीम के पेड़ की पत्तियों
के रस को पीकर
छोटे काका अच्छे हो गए थे,
और तभी से
काका नीम के पेड़ को सबसे
ज्यादा चाहने लगे
उन्हींने तो उसके चारों
ओर चबूतरा बनवाया था
जिसपर, क्या भोर क्या दोपहरी
क्या शाम और क्या रात
हर वक़्त मण्डली जमा रहती
कभी मदारी बन्दर का नाच
दिखाता
तो कभी भालू का खेल
और जैसे सबके साथ वो नीम
का पेड़ भी
हंस बोल रहा हो
जब पतझड़ आता तो सब कुछ वीराना
सा हो जाता था
पर बसंत ऋतू आते ही नई कोंपलें
नयी उमंगों से उसे एक बार
फिर हरा भरा कर देती थीं
उस पेड़ ने गांव की कई पीढ़ियों
को जन्मते
और फिर उन्हीं पीढ़ियों की
मृत्यु को भी देखा था
क्रंदन सुनकर वो शान्त हो
जाया करता था
और खुशियों में वही पेड़
झूम उठता था
उसकी छाँव में एक अजीब सा
सुकून था
और उसके रूप का विस्तार
बड़ा ही अद्भुत
काका बताते हैं कि जब जब
वो दुःखी
या परेशान होते थे, तो अपना
अंतर्मन
उसके सामने उड़ेल देते थे
और वो जड़वत हो सब कुछ स्वयं
में समां लेता था
अब वो पेड़ बहुत जर्जर हो
गया था
और जब वो पूरी तरह सूख गया
तो उसे काट दिया गया
अब उस स्थान पर
भगवान् शिव का छोटा सा मंदिर
बनाया गया है
मुझे भी आम, जामुन, शहतूत
बहुत पसंद हैं
कल मैंने अपने दालान में
एक नीम का पेड़ लगाया है
मुझे लगता है इसी में मेरा
सुकून है
यही विस्तार है, जो एक दिन
विस्तृत होगा
-Snehil Srivastava
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© Snehil Srivastava
हमारे सुख-दुःख के मूक साथी है पेड़-पौधे ....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्यारी रचना ....