Path to humanity

Path to humanity
We cannot despair of humanity, since we ourselves are human beings. (Albert Einstein)

Monday, November 7, 2016

स्थिर गति
Stream of life

कितनी रफ़्तार है ज़िन्दगी में
किन्तु समय स्थिर, मौन जैसे अनंत व्योम
और ये एहसास कितना सरल है
जैसे यथार्थ और यथार्थ का विलोम
उन दूर चमकते तारों से पूछा
इन घटाओं से, बहती हवाओं से, इन बहारों से पूछा
कौन है तुम्हारा खेवैया?
क्या तुम्हारी भी होती है ज़िन्दगी?
तारों ने और भी चमककर
घटाओं ने जोरों से घुमड़कर
हवाओं ने बहकर सरसारकर
बहारों ने हमेशा की तरह मुस्कुराकर
कहा-
ये वो है जिसका कोई रूप नहीं
बिन जिसके हमारा, शून्य जितना भी स्वरुप नहीं
वही प्रथम है, वही अंतिम भी है, वही सर्वाधार है
जो अविस्मरणीय भूत है, जो अंत रुपी भविष्य है
जिसके कारण ही वर्तमान साकार है
यही तो ज़िन्दगी है, यही इसकी रफ़्तार है
जिसके बिना जिंदगी एक मझधार है
इस भव सागर का खेवैया भी वही है
वही पतवार है, नैया भी वही है
और हम केवल कठपुतलियां
तो क्या कोई और; गतिमान है,
अतिरिक्त सर्वस्व, स्थिर है ज्ञान है?

-Snehil Srivastava
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© Snehil Srivastava

Sunday, November 6, 2016

हर रात के बाद...
When the night passes

बहती भीनी ठण्डी हवा,
जब रात के तारों संग
सरकते हुए मेरे तकिये के नीचे
आती है, तो यूँ लगता है
कि प्रकृति की शुचिता
मानवीकृत होकर
मुझे मेरे अधूरे सपनों से
मिला देने चाहती है।
सुबह का ये नीला आकाश,
कलरव करते पंछी,
झूमते उमड़ते वृक्ष; मुझे अपने रंगों में
भिगो देने को आतुर हैं
कि मेरी अस्मिता
मुझमें आत्मसात होकर
मुझे मेरे खोये अस्तित्व से
रूबरू कर देना चाहती है।

-Snehil Srivastava
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© Snehil Srivastava

आज मुझे खुदा मिला
I met Him today

आज मुझे खुदा मिला,
रंजोग़म में बैठा - गुमसुम सा खुदा
उसकी आँखों का पानी
उसके कांपते हाथ
उसका उतरा चेहरा
उसकी थरथराती आवाज़,
जाने थी किस वजह?
पर आज मुझे खुदा मिला।
मेरे सवालों पर,
उसने गहरी ख़ामोशी इख्तियार कर ली।
मेरे कुरेदने पर बस-
उसकी आँखों का पानी,
गालों के रास्ते ढुलककर
सर्द होने लगा।
और आज मुझे खुदा मिला।
उसका यूँ ग़मगीन होना
उसके खुदा होने पर
कई सवाल खड़े करता है।
कि क्या वो वाकई खुदा है?
क्या वो इंसानियत से इतर हुआ है?
या फिर उसे 'कुछ तो' एहसास हुआ है।
क्या? वो अपने खुदा से क्यों न पूछ ले?
शायद वही यह कह सके-
"आज मुझे खुदा मिला।"

-Snehil Srivastava
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पहला प्रश्न, अंतिम उत्तर
Beginning of an end!

इस तरह या उस तरह
न जाने फिर किस तरह?
तारा टूट गया,
हर अपना रूठ गया।
मनाया मैंने,
उस टूटे तारे को
सुबकते-बिखरते,
उस प्यारे को
पर वो
सपना सा, तारा बनकर टूट गया।
क्या सचमुच वो एक तारा था?
एकलौता जीवन जो हारा था,
अपनी मध्यम रौशनी को भूले
क्या ऐसा अस्तित्व वो सारा था।
पर वो तारा था,
रूठ गया, टूट गया।
सारे अपने मुझमें मिलकर
मुझसा बनना क्यों चाहें हैं?
क्या मैं भी खुद से रूठा हूँ
फिर वो तारे मुझको क्यों मनाये हैं?
पहला प्रश्न, अंतिम उत्तर-
इस तरह या उस तरह
न जाने फिर किस तरह!

-Snehil Srivastava
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© Snehil Srivastava