इस बाज़ार की चहल पहल
और ये गुथी हुई सी भीड़
मेरे कानों में बजते संगीत से
सामंजस्य बिठा ही रहे थे
कि अचानक
मैं आवाक होकर
कहीं खो सा गया
शायद उन्हीं यादों में
जिनमें मेरा मन
आज भी रमा हुआ है
भीड़ से अलग
बाज़ार से कहीं दूर
जहाँ खिलौने मिलते हैं
और मिट्टी का गुल्लक भी
और जब गुल्लक में संजोकर
रखे गए सिक्कों की खनक
हृदय से मेल खाती है
तो सरगम शहद की भाँति
मीठा मीठा एहसास कराती है
इन यादों की छाया में
मेरे खिलौनों का एक छोटा सा
पिटारा है, बड़ा ही अनूठा
जिसमें सभी मुझे पाकर
खुश हो जाना चाहते हैं
और मैं उन्हें सजीव होता देख
नम आँखें लिए, हँस पड़ता हूँ
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© Snehil Srivastava
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