Path to humanity

Path to humanity
We cannot despair of humanity, since we ourselves are human beings. (Albert Einstein)

Monday, December 15, 2014

और फिर एक सुबह हुई
The New Dawn

और फिर एक सुबह हुई
लंबी कारी रात के बाद
जब पसरा हुआ था सन्नाटा
और दूर कहीं सियारों की आवाज़ें
रह रहकर भयाक्रांत कर रहीं थीं
ढिबरी की जलती बुझती रौशनी
सांय सांय करती हवा
और खरखराते उड़ते पत्तों की आवाज़ें
रीती हुई ज़िन्दगी की
अनकही कहानियां कह रहे थे
अंगीठी में जल चुकी
पुरानी लकड़ी की राख की महक
उनकी सिंकन से सखत पीले हुए हाथ
मन के आँगन को
कोमल कर देना चाहती थीं
पर क्या भूखा तन
सहमा, रोता बचपन
इस विचार से अनभिज्ञ नहीं था
कि सुबह तो होनी ही थी

और फिर एक सुबह हुई
सियारों ने चीखना बंद कर दिया अब
भय भी था मिट चुका तब तक
ताख को अपनी कालिमा देकर
बुझ चुकी थी ढिबरी भी
नहीं थी अब कोई महक
जल चुकी पुरानी लकड़ियों की
ना चल रही थी कोई हवा
ना उड़ रहे एक भी पत्ते
सखत हुए पीले हाथ
अब तक थे मर चुके
संजोये हुए अपने हाथों में
अपने ही अंश को
और धुंए से काला हुआ आंसू
सूखकर भी ना भुला पाया इस दंश को
रह गयी थी तो बस
एक सुबह- भूखी मरी हुई
और विचारों की वही अनभिज्ञता

Picture credit: www.en.auschwitz.org

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© Snehil Srivastava

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