Path to humanity

Path to humanity
We cannot despair of humanity, since we ourselves are human beings. (Albert Einstein)

Monday, December 8, 2014

एक उनींदी सी आह
A tale of last sigh


आँखों का गरम पानी क्यों रह रहकर तुम्हारे कोरों पर रुकता है?
फूल मुरझाकर टूटता है, बिखरता है पर सदा यूँ ही महकता है
क्यों तुम्हारे अंदर की आंधी उदासी से भरी होती है
आंधियाँ जब थमती हैं जिंदगी को नई दिशाएं मिलती है
एक उनींदी भरी आह मुझसे बोली

ये आँखों का पानी नहीं समंदर है मेरी आहत भावनाओं का
फूलों का महकना यदि सत्य है तो आखिर वो जीवित ही क्यों होता है
यदि आंधी ना होती उदासी में तो दुनिया सदा ही रोती रहती
जिंदगी जब थमती है तो दिशाएं भी बिखर जाया है करती
मेरे उत्तर को सुनकर आह मंद पड़ गयी

Picture credit: www.livelightbeing.com

(Note- No part of this post may be published, reproduced or stored in a retrieval system in any form or by any means without the prior permission of the author.)
© Snehil Srivastava

No comments:

Post a Comment