Path to humanity

Path to humanity
We cannot despair of humanity, since we ourselves are human beings. (Albert Einstein)

Tuesday, November 22, 2011

निःशब्द, स्थिर, नितांत


सामने खड़ी इस दीवार की
उजड़ी-टूटी पपड़ियाँ
कितनी नरम हैं
और इसकी ईटें
कभी सुर्ख लाल रही होंगी-
जब उन्हें पानी से
भिगोया गया होगा.
अब ये सूखकर
धुंधली हो चली हैं
जाने कब
ये दीवार गिरकर टूट जाएगी
पर जब तक है,
खुद के सहारे खड़ी है
निःशब्द, स्थिर, नितांत
स्वयं के विश्वास पर
ज़मीन से जुड़ी हुई.

इस दीवार पर कितनों ने
पान की पीक
और जहान की सारी
गन्दगी डाल रखी है
ऊपर तीन कीलें
बहुत गहरे तक
धसी हुई हैं
इन्हें निकालकर देखने पर
वही सुर्ख लाल रंग
आज भी नज़र आ जाएगा
सारी दुनिया का वैमनश्य
खुद में जज्ब कर
ये दीवार
अब टूटना चाहती है
पर हो सकता है
किसी और को
अपने ठौर के लिए
इसकी तलाश हो
जो इस तक आकर
ख़त्म हो जाये

कोई समझाए इसे
कि बस यूँ टूटकर
इसका जन्म
निरर्थक रह जायेगा
स्वार्थी मानव की तरह
बिना जीवन के मर जायेगा.
इसकी हर एक टूटती ईंट
अन्दर के खोखलेपन से
आत्मसात होकर
जन्म की वास्तविकता को
झुठला रही है
इसका टूटकर बिखर जाना ही बेहतर है
अन्यथा
इसकी छाँव में बैठे हुए
'वह' दबकर कभी भी मर सकता है
और इस दीवार के ह्रदय ने
ऐसा कभी नहीं चाहा
इसने तब खुदा से इबादत की थी
कि इसकी हर एक ईंट
समय कि गति से मिलकर
सुन्दर आशियाने में तब्दील हो जाये
जहाँ खुशियों का ठहराव हो,
और इसका वही सुर्ख लाल रंग
बरक़रार रह सके

ऐसा न हो सका
ये दीवार
अब मर रही है.
उसी मंद मुस्कान के साथ
मरकर भी खुश है ये
कम से कम
कोई इसके कारण
आहत नहीं हुआ
रह गयी
वही पान की पीक
उजड़ी हुई नरम पपड़ियाँ
धसी हुई कीलें
गहरी, बहुत गहरी

Monday, November 21, 2011

"याद..."



"याद एक शब्द है याद है एक एहसास,
आज है बहुत दूर कल था कितना पास.
यादों  को याद करने से आँखों में आंसू और होंठो पे हँसी है
ज़िन्दगी तब तो रुकी थी पर आज क्यों रुकी है ?
आंसू से यादों को भूलने का मन करता है
हँसी से दिल उन्हें फिर याद करता है
अब ना हँसना है ना रोना है
ना यांदें बनाना है ना उन्हें खोना है
पर इसके लिए कुछ यांदें होनी चाहिए
होंठों पे आंसू और आँखों में हँसी होनी चाहिए
बांते वही पहुँचीं हैं जहाँ से शुरू हुई थीं
अब आँखें नम हैं तब क्यूँ धुली थीं ?
सब कहते हैं 'स्नेहिल' सोचता बहुत है रोता बहुत है,
पर वो जब भी हँसता है खोता बहुत है
इस सोच में संतुष्टि और रोने में ख़ुशी है
पर ये यांदें इतना दर्द क्यूँ देती हैं ?"

Sunday, November 20, 2011

विराम कुछ क्षणों का


विराम है ये कुछ क्षणों का
अंत की दिशा में
अधिकता विचारों की, हर पल
ले जा रही घनघोर निशा में
जिसके बाद, है विश्वास-
होगा एक नया सवेरा
सब कुछ तो होगा
पर नहीं रहेगा अस्तित्व मेरा

यही शाश्वत सत्य है
जीवन की वितृष्णा का
हर एक ख़ुशी को
कभी न कभी तो मिटना था
परन्तु, विराम ये क्षण-प्रतिक्षण
और भी गहरा हो चला है
इस तरह रोने से अच्छा
तो मिटना ही भला है.

Sunday, November 6, 2011

"पैरों में पैंजनी पहने..."

पैरों में पैंजनी पहने,
जब वो छम्म छम्म कर चलती थी
कभी माँ की गोद में कभी पिता की
सारी दुनिया की सैर करने निकलती थी

यूँ ही एक दिन, उसने सोचा बड़ी हो जाऊं
पर दिल तो था अभी उतना ही कोमल
सबने सोचा बस, जल है ये किसी नदी का
पर जाने क्यों है इतना शीतल और निर्मल

किसी ने कहा इसे, ये मेरा है 'पानी'
किसी ने कहा कि बस मेरी है ये 'कहानी'
पर इसे मिलना था गहरे समंदर से
सब कुछ भूल, इसने किसी से कुछ कहा नहीं

धीरे धीरे, नदी ये जा रही है किसी ओर
जहाँ सोचा था इसने स्वयं का अंतिम छोर
पर ऐ नदी, तुम तो शांत हो 'उसकी' तरह
'जो' पैरो में पैजनी पहने फिरती थी, यहाँ वहाँ!!!




Dedicated to one of my friend...

Saturday, October 15, 2011

"...म्हारे को म्हारे सासुरे भेज दो..."


मुझको मेरे ससुराल भेज दो
वहां ये मेरा हाल भेज दो
माँ का रोना अब देखा नहीं जाता
पिता का खिलौना अब टेका नहीं जाता
मुझे अब उन दूजे फूलों की सेज दो
मुझको मेरे ससुराल भेज दो


भैया से लड़ाई अब याद आती है
गुड्डे गुड़ियों की सगाई अब याद आती है
देखो भैया मुझे फिर रुलाता है
फिर प्यार से छुटकी बुलाता है
इन सारी बातों को कहीं सहेज दो
मुझको मेरे ससुराल भेज दो


जब मैं मेरे ससुराल जाऊँगी
इन बातों को ना भूल पाऊँगी
सबकी मुझको याद आएगी
सोने पर भी नींद ना आएगी
माँ...! तुम मुझे अपना सा तेज दो
मुझको मेरे ससुराल भेज दो...

Friday, October 14, 2011

"घर सपनों का..."

"दूर बहुत है
'घर' मेरा और तुम्हारा
वजहें इसकी
कहने को तो हैं कई सारी
कुछ झूठी मेरी
कुछ सच्ची तुम्हारी
झूठ है ये-
रोटी घर की ही
होती है मुलायम?
सच है ये
देती है ख़ुशी
यदि मिला हो, खुद का जतन?
घर से दूर रहना
किसे रास आता है
और फिर वापस लौट आना
कैसी आस दिलाता है
आशा-
एक नए घर की
सुखमय जीवन की.
परन्तु!
समय की शक्ति
घर को दूर-
और दूर ले जाती है
पर इच्छाशक्ति
मनस की
पैरों को पुरजोर
आगे बढाती है
नहीं रुकते हैं पाँव
चाहे
कितना भी रक्त निकले
और घर पहुँचने का रस्ता
कितना, क्यूँ ना सख्त निकले
और फिर
वही पंछी, वही कलरव
और वही छाँव
जिसके लिए
दौड़ जाते थे हम
नंगे पाँव
फिर माँ की आवाज़
डांटती, दुलारती और वही आस
जैसे, घर हो ना जाने कितना पास."

Saturday, October 8, 2011

'my life-irony'



Sometimes I behave like hell
the same moment
I wanna love you like my jewel.
whether you like it or not
but its me, only me...

I don't wanna change for you
or anybody else
if I do so, it wont be me
whether you like it or not
its my destiny...
I wanna share whole 'me' with you
but I am scared
that I would be left alone
whether you like it or not
its my true agony...

The day when all will be gone
then I will miss you for sure
trying to escape from this world
whether you like it or not
its my life-irony...

Thursday, October 6, 2011

"...तो मेरा तर्पण हो"

कहते हैं, दर्शन, दार्शनिक जानते हैं
और वे जीवन का सारा रहस्य
कुछ-कुछ कर पहचानते हैं
परन्तु,
ना मैंने दर्शन जाना और ना ही दार्शनिक को
फिर क्यूँ लगता है-
तुम, मेरा जीवन और जीवन-दर्शन हो
जब -जब किया तुम्हें दूर
सोचा अब शायद कुछ परिवर्तन हो
और भी पास होता गया
शायद यही मेरा समर्पण हो
जब उस पल,
खारे पानी का एहसास हुआ
तब मैंने जाना , तुम्हें पाया
और विकसित, विश्वास हुआ
हर बूँद को अंजलि में भरकर सोचा
अब तो मेरा तर्पण हो...

ज्वलंत उदाहरण

असमानताओं की जगह है
कोई है स्वयंभू और कोई आश्रित
निराश्रित भी कई हैं यहाँ
परन्तु इस पल में सब हैं शांत!!

कोई बताएगा मुझे क्या वजह है
कोई है यहाँ और कोई वहां
बिना किसी छोर के भी, कई हैं यहाँ
और इन सबके बीच मन है विकलांत

कोई तो कहे- क्यूँ ये सजा है?
चारों ओर अँधेरा, कहीं है एक दिया
खुद को जलाये भी, कई बैठे हैं यहाँ
स्वयं से पूछूँ? क्या है इसका अंत...

रेलगाड़ी, क्या यही परंपरा है?
कभी तो गति और कभी गतिहीन
साथ कभी जीवन का भी, सुना था यहाँ
खुद से पूछो, उदाहरण है ज्वलंत!!

Tuesday, September 27, 2011

जब फिर कभी...


जब फिर कभी धुंधली सी शाम होगी
और तुम होकर भी साथ ना होगी
चाहे कितने भी नम हों मेरे नयन
तुम्हारे बिना ज़िन्दगी अधूरी ही रहेगी

जब फिर कभी वो रात आएगी
थककर बैठ जाएगी, पर तुम्हें ना पाएगी
बोझिल होकर देखेगी नवीन स्वप्न
तुम्हारे बिना 'वो रात', फिर ना उठेगी

जब फिर कभी वो स्पर्श होगा
घने अँधेरे में तुम्हें महसूस करेगा
ना पाकर तुम्हें वो 'स्वप्न' सजल
आँखें बंद किये नमित कोरों से सजेगा

जब फिर कभी 'वही राह' मिलेगी
और चुभती हुई मुझे थाह मिलेगी
तुम ना हो वहाँ, यही करूँगा जतन
बस तुम्हारी कमी सारी उम्र खलेगी|

Sunday, September 25, 2011

रहस्य अंत और रहस्य.

ये जो एहसास है
निश्चल, सरल, निर्मल
अनछुआ, अनकहा
चला आ रहा था
अज्ञात विश्वास से,
ना जाने कब से?
पहला नाम इसका, था-
मार्मिक, सार्वभौमिक, अलौकिक
या कह दो,
विस्तार से भी विस्तृत
परन्तु,
शब्दों की सीमाओं में
बंधा हुआ
ये खोज में था
खुद में छिपे
अस्तित्व की.
और अब,
जब ये बन चुका है
अनुभूति, प्रतिभूति
विरक्ति, आसक्ति.
कर रहा है कोशिश
छुड़ा लेने की
इन
बंधनों से, अड़चनों से
कभी न प्राप्त हुए
अवसरों से
और,
क्या कभी संभव होगा-
कुंठा, कटुता और
प्रतिक्रिया से दूर हो पाना
यदि हाँ-
तो कब
और कैसे?
यदि नहीं-तो इसका कारण
गूढ़ रहस्य की तरह
उलझनों में
उलझा हुआ है और
सदा रहेगा.
विराम लगाना होगा इसपर
अन्यथा यह,
सदा ही अबाध गति से
चलता ही रहेगा,
चलता ही रहेगा...


MEANING-
निश्चल- stagnant
निर्मल- serene, translucent
अनछुआ- untouched
अनकहा- unuttered, tacit
मार्मिक- touching, poignant
सार्वभौमिक- universal
अलौकिक- superhuman, uncanny
अस्तित्व- existent

अनुभूति- realization 
प्रतिभूति- bond
विरक्ति- disaffection, indifference, alienation
आसक्ति- attachment, affection
अड़चनों- obstacle, hurdle
कुंठा- frustration
कटुता- bitterness, cyncism
गूढ़- deep, mysterious
अबाध- unstoppable

Monday, August 22, 2011

जीवन का मर्म

प्रकृति कितनी विशाल है
जैसे ये सारा आकाश,
ये फैला हुआ पानी.
है धुप एक क्षण को
फिर आई है ये छांव
उन बादलों के मन से.

ये नमी, बस अभी रो देगी
या फिर कहेगी
रुको धूप! रहने दो मुझे
यूँ ही नम
पर शायद ये है
बस एक भरम

इस मन के कितने हाल हैं
जैसे ये सारी आस
और ये जीवन की कहानी
है मूक एक क्षण को
फिर आये हैं शब्द
न जाने किस गहरे वन से.

ये हसीं, बस अभी कह देगी
या फिर चुप रहेगी
यूँ चुप रहकर कितना कुछ है
कहा उसने
शायद यही है
इस जीवन का मर्म.

Tuesday, August 16, 2011

अकारण!!


ये रंग तुम्हारे- प्रकृति
हर क्षण क्यूँ बदलते हैं
क्या ये कोई नियम है
या बस अकारण!!
ऐसा तुम खुद चाहो-
लगता नहीं मुझे.

हर समय, ए समय
तू बदल क्यूँ जाता है
क्या ये कोई वचन है
या बस अकारण!!
ऐसा तुम खुद करो-
संशय है मुझे.

ये रूप तुम्हारा, जीवन
इतना सारा क्यूँ है
क्या ये कोई प्रहसन* है
या बस अकारण!!
ऐसा तुम खुद करो
आश्वस्त** नहीं हूँ मैं.

और 'मैं' तुम सबसे
मिलकर बना हूँ
फिर भी 'एक' हूँ
क्या ये कोई भरम है
या बस अकारण!
तुम सब हो इसका कारण
विश्वास है मुझे...





*- play, नाटक, farce comedy, satire
**- confirm, sure

Saturday, July 30, 2011

एक शादी ऐसी भी


दूर से ही झालरों की टिमटिमाती सी रोशनी दिखाई पड़ी और बिलकुल नया फ़िल्मी गाना कानों में समाया जा रहा था.आखिर ये मेरे घर पर इतनी सजावट क्यूँ है, मुझे किसी ने कुछ बताया ही नहीं?तभी एक झटका सा लगा, सामने जलती बुझती सी लाईन पढ़कर"Aviral Weds Pratima"!!
"मम्मी!! मम्मी!! मम्मी!!" (मैंने चिल्लाकर कहा), "कहाँ हो , क्या हो रहा है ये सब? किसका नाम लिखा है बाहर? पागल हो गए हो क्या सब लोग?"मैंने प्रश्नों की झड़ी सी लगा दी.
पापा, मम्मी के साथ ही खड़े थे, मैंने उनसे पूछा- "पापा!! क्या बकवास हो रहा है यहाँ"उन्होंने मम्मी की ओर देखा जैसे शांत खड़े थे वैसे ही खड़े रहे.तभी मेरी मम्मी, मुझसे बोलीं- "अरे भैया!! तुम्हारी ही शादी है और किसकी होगी?""किसी की भी हो, मुझे नहीं करनी...जा रहा हूँ मैं वापस, आप सब लोग ना जाने किससे करवा रहे हो मेरी शादी,और किसी से भी करवाओ, जब मुझे अभी शादी करनी ही नहीं तो फिर बात ही खत्म"
"बेटा, माँ-बाप कब तक रहेंगे साथ, कभी तो करनी ही है ना और एक बार लड़की देख तो लो फिर कहना"(मम्मी पूरे आत्मविश्वास से बोलीं)"मुझे कोई लड़की-वड़की नहीं देखनी, ना जाने कौन पागल है जो बिना मुझे देखे शादी के लिए तैयार हो गयी, बेवक़ूफ़!!और अब देख कर करना क्या है जब मैं वापस जा रहा हूँ."आया था छुट्टी लेकर कुछ दिन चैन से रहने और यहाँ सब के सब सारी ज़िन्दगी का चैन छीनने पर लगे हैं, (मैं मन ही मन बड़ड़ाया).
और फिर वही, मम्मी का रोना-धोना शुरू-"तुम लोगों को क्या है, तुम्हे क्या पता, पापा और मैं कैसे रहते हैं यहाँ पर अकेले?पापा चले जाते हैं आफ़िस और मैं सारा दिन बस तुम ही लोगों के लिए सोचा करती हूँ.ठीक है, मत करो शादी. जो जी में आये करो. करो सब अपने मन की. माँ-बाप के लिए सोचता ही कौन है."
"अच्छा ठीक है, चुप हो जाओ मेरी प्यारी माँ. एक गिलास पानी तो दे दो अपने बेटे को. प्यास से गला सूखा जा रहा है. एक तो इतनी गर्मी है और यहाँ इतना बड़ा ड्रामा!!" (मैंने अपनी माँ को चुप करने की सफल कोशिश की.)
मैं पानी पी ही रहा था कि मम्मी ने दुसरे हाथ में एक लड़की की फोटो थमा दी.एक बारगी लगा, यही है क्या? सच में कितनी भोली है ये. कितनी खूबसूरत है, बिल्कुल परी जैसी (वैसे मैंने आज तक परी देखी तो नहीं, लेकिन जहाँ भी होगी बिलकुल इस जैसी ही होगी.)
"कहाँ के हैं ये लोग?" पहला ही प्रश्न मेरे मुह से निकला.
"बेटा, लखनऊ के रहने वाले हैं.पापा इसके डॉक्टर हैं. अब रिटायर हो गए हैं. एक बड़ा भाई है, मुंबई में जॉब करता है और ये भी बैंगलोर में जॉब कर रही है."
चलो अच्छा हुआ, मुझसे अच्छी कंपनी में कर रही है तो शादी कैंसल. (मैंने मन में सोचा).
"ऐसा कुछ नहीं है, बड़े अच्छे लोग हैं. ऐसे क्या घूरे जा रहे हो, फोटो को? (और मै उनके सामने झेप सा गया)सच है,ये माँ भी ना, मन में ही बैठे रहती है. यहाँ आपने कुछ भी सोचा नहीं कि उन्हें सब कुछ पता चल जाता है.
"अरे, मैं सोच रहा था कि ये ठीक-ठाक तो लग रही है तो मुझसे शादी क्यों करने लगी?"- मै बोला.
"काहे, हमार बिटवा कोनो से कम है का?"- सारी माँओं की तरह, मेरी माँ का भी, आज तक का सबसे पुराना और अनुत्तरित प्रश्न.
माँ बोली- "अच्छा चलो, अब देर ना करो, छोटा सा फंक्शन रखा गया है, जल्दी-जल्दी में कुछ इन्तेज़ाम ही नहीं हो पाया. बाकी का रिसेप्शन में देखा जाएगा. अब चलो तैयार हो जाओ, पापा लखनऊ से सूट लेकर आये हैं तुम्हारे लिए.
और फिर ना जाने मैंने हाँ क्यों कर दी, मैं भी शायद इन लोगों की तरह पागल हो गया हूँ. कुछ समझ में तो नहीं आ रहा था, बस सब कुछ खुद-ब-खुद हो रहा था."बेटा चलो, पापा बुला रहे हैं."- मम्मी फिर बोलीं.
"हाँ, आ रहा हूँ. आप चलो."- मैं कहा.
एक आखिरी बार अपना चेहरा देख लूँ कि मैं सच में पगला तो नहीं गया हूँ जो शादी करने जा रहा हूँ.क्या-क्या सोचा था- ये करूँगा, वो करूँगा. पर ये लोग तो चाहते ही नहीं की मै कुछ अच्छा करूँ.(जाने कैसे कैसे ख़याल आ रहे थे मेरे मन में)
"बेटा!!"- पापा की आवाज़ आई.(अरे जान ले लो आज मेरी)-"आ रहा हूँ पापा."
गाड़ी जैसे-जैसे आगे बढ़ रही थी, ऐसा लग रहा था कि ज़िन्दगी कुछ घट घट सी रही है.ये, शादी होती ही क्यों है, किसने बनाया है इसे. लोगों को कुछ और काम नहीं होता क्या, और इस बेवक़ूफ़ प्रतिमा को क्या सूझा. इतनी सुन्दर है, इसकी शादी तो वैसे भी हो ही जाएगी. लगता है, भगवन ने सुन्दरता तो दे दी,बुद्धि देना भूल गए इसको.
"आइये, भाई साहब, आइये"एक जनाब हाथों में फूलों का गुलदस्ता लिए पापा की ओर बढ़े. (यही होंगे उस बेवक़ूफ़ के पापा).
"आओ बेटा", एक भोली सी औरत, गहनों में सजी हुई, और हाथों में पूजा कि थाली लिए मेरी तरफ देखते हुए बोली.(ये शर्तिया 'उसकी' माँ होगी)सारी माएं इतनी भोली क्यूँ होती हैं?O' hello, sentimental इंसान!! शादी हो रही है तेरी...concentrate कर concentrate...(मेरे मन ने मुझे झिड़की सी लगायी)
मैंने आगे बढ़कर उनके पैर छुए और फिर उन अंकल के भी,जो पापा से गले मिल रहे थे.
"लो आ गयी प्रतिमा"- आंटी ने कहा.
(ये इतनी खूबसूरत क्यों है भाई?)- मेरे मन ने मुझसे पूछा."अरे चुप रह, concentrate करने दे concentrate...!!
"बिटिया, प्रतिमा, अविरल को अंगूठी पहनाओ और फिर माला""हाँ बेटा, हाथ आगे बढ़ाओ"  
यार, क्या तुम बचपन से ही ऐसी हो, इतनी प्यारी?मन ही मन मैंने उससे पूछा और वो हौले से मुस्कुरा दी, जैसे उसने मुझे सुन लिया हो.
और फिर अंगूठियो की अदला-बदली, फिर खुसबूदार गुलाब के फूलों की माला पहनाई मैंने उसे और उसने मुझे.
लो हो गयी शादी, और हो गयी हो गयी जेल, मन में ना जाने ये सारी बातें कहाँ से घूम रही थी मेरे, उसी का असर रहा होगा, इतनी सुन्दर जो है ये.
"चलो बेटा, खाना खा लो."- उसके पापा बोले."हाँ, अंकल"- मैंने कहा.और फिर हम लोग खाने की मेज की तरफ बढ़े.जब से आया था, एक गिलास पानी के सिवा कुछ नहीं गया था मेरे मुंह में. लेकिन निवाला बड़ी मुश्किल से जा रहा था, ना जाने क्यूँ? भूख लग भी रही थी और नहीं भी.मैं बस उसे देखे जा रहा था. जैसे कोई सपना देख रहा हूँ.
सपना...!!!!!तो क्या ये सब एक सपना था. अचानक नींद खुल गयी मेरी. ये सब मैं सपने में देख रहा था? (खुद से पूछा मैंने)लेकिन खूबसूरत था सब कुछ और सबसे अच्छा था खाना पर उससे कहीं अच्छी थी प्रतिमा और मेरी माँ.


-स्नेहिल श्रीवास्तव

Saturday, July 23, 2011

Thank U, My Friend



My friend, I wanna thank you
For-
The words, stories and a lot from you
I know,
I was low- in my confidence and in my sense
But yes- “Being true is not a hindrance.”
I was wrong for this ‘right’
I just didn’t had that foresight
You make me understand this
And believe me-
From then I am in bliss.
That I will do it.
No matter what happens in life
Whether its sword or a sharp knife.

Friday, June 3, 2011

फिर एक रात है...!!!


आज फिर एक रात है
अनजानों से भरी
बातें हैं सबकी देखो,
कुछ सुनी, कुछ अनकही
ये साथ के राही
कुछ कुछ पहचाने से हैं,
फिर एक पल लगता है
कितने बेगाने से हैं...

ये छोटा बच्चा
इतना प्यारा क्यों हैं,
इसकी बातों का पिटारा
इतना सारा क्यों हैं?
इस औरत के गहने
चमक-चमक रहे हैं
आँखों में ख़ुशी लिए
दमक-दमक रहे हैं...

पर ये राह, थोड़ी धीमी सी है
हाँ, बस तुम्हारी कमी सी है
क्या हम कुछ बातें करें!!
या साथ रहकर भी चुप चुप रहे
खामोश तो यूँ
सारी ज़िन्दगी बीतेगी
पर एक "दोस्त" के बिना
अधूरी ही रहेगी

आज फिर एक रात है
अन्जानों से भरी...!!!


Wednesday, January 26, 2011

'सच' थोड़ा सा...


क्या लिखूं
लिखूं कोई बात
या एक सहमा सा एहसास
या लिखूं थोड़ा सा
या कुछ सच


सारी रात अँधेरे में
आँखें मेरी
कुछ ढूंढा करती है
शायद खोज ये
एक असीम नींद की होती है
जिसके बाद सिर्फ और सिर्फ
एक क्षितिज होता है

उस पार क्षितिज के
मेरा इंतज़ार करते हुए
कोई, ना जाने कब से बैठा है
कौन है ये?
मैं हूँ या मेरी प्रतिछाया
या ये सिर्फ मेरा एक भ्रम है
कोई नहीं है उस पार
कोई नहीं कर रहाइंतज़ार
वहां तक जाने की छटपटाहट सी होती है
पर जाने कौन सी बात
मुझे बांधे सी रहती है

कितना मुश्किल हैये
सोचकर
आँखें बोझिल होने लगी हैं
और धीरे धीरे मन  को
नींद की गहराईयों में
डुबोने सी लगती हैं
सांस लेना
कितना मुश्किल है यहाँ
कितने लोग हैं इस गहराई में
सारे के सारे अनजाने
या कुछ कुछ पहचाने से
ये मिट्टी कितनी गीली है
सारा कीचड़ पैरों में
सना जा रहा है
कब्र की खुशबू का एहसास
इतना भारी क्यों है
कौन हैं ये लोग
मुझसे बांतें क्यों नहीं करते
क्या नाराज़ हैं मुझसे?

तभी कहीं दूर
लगा जैसे तुम हो
पर मुझे पहचान क्यों नहीं रही हो
कुछ तो कहो
दम घुट रहा है
नींद टूट जाएगी
या मैं!!

'सच', कहा था तुमने
लिखने को.
देखो कितना
अजीब सा है
ना ही ये थोड़ा है
और ना ही अच्छा
पर सच तो सच है
कैसे बदलूँ मै उसे
फिर घुट रहा है दम
जैसे नींद  जाएगी
गहरीबहुत गहरी
और ले जाएगी
पार
उस क्षितिज के
खुद से दूर
हमेशा के लिए........