Path to humanity

Path to humanity
We cannot despair of humanity, since we ourselves are human beings. (Albert Einstein)

Thursday, December 31, 2015

रुदन और क्रंदन
Cries and Cries

हर रुदन हर एक क्रंदन
में कुछ सामानांतर होता है
कुछ अवस्थाओं पर निर्भर होते हैं
तो कुछ व्यवस्थाओं पर
हाशिये पर लौटा दिए गए
बादशाहों की भांति
कुछ अपने तख्तोताज गंवाते हैं
और कुछ अपने नमित कोरों को
नम ही रहने देना चाहते हैं
उन्हें लगता है कि
ये रुदन अथवा ये क्रंदन
उन्हें उनके भूत से मिलाप को तत्पर है
किन्तु ये अपने हृदय सा
बिलकुल प्रस्तर है
काँट छाँटकर जिसको मूर्त रूप दिया जायेगा
और जिसपर कोई आकर फूल चढ़ाएगा
क्योंकि इनके बीच का अंतर ही
इनके रुदन का कारण है
और इनका सम ही
इनके क्रंदन का


-Snehil Srivastava
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अभी हार नहीं, कभी हार नहीं
Never lose hope!

बार बार लगातार
थककर थम जाना उचित नहीं
और वहीं नवीन ऊर्जा एकत्रित कर
बढ़ जाना भी अनुचित नहीं
मन का विस्तार,
सागर के उस पार संभव नहीं
ये मानकर टूट जाना भी
कदापि संभव नहीं
आशा द्योतक है सकारत्मकता की 
सृजन संयोजक है आक्रात्मकता की
वीरता इसी में है कि अभी हार नहीं
वीरता इसी में है कि कभी हार नहीं
स्वयं पर निरंतर विश्वास शक्ति है
इसी शक्ति से उत्पन्न होती हर युक्ति है


-Snehil Srivastava
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सर्वस्व अर्पण
All yours...destiny

अंजुलि भरकर अर्पित कर दो
गंगा में सर्वस्व तुम्हारा
तब ही तुमको मिल पायेगा
सत्य दिशा का एक तारा
रूठे भाग्य की अंगड़ाई में
स्वप्न मिलेगा प्यारा प्यारा
अंजुलि भरकर अर्पित कर दो
गंगा में सर्वस्व तुम्हारा
अज्ञान मार्ग फिर खुल जायेगा
मिट जायेगा अँधियारा
संतुष्टि मिलेगी, मुक्ति मिलेगी
धन्य हो जायेगा संसारा
कलुषित भाव धुल जायेगा
अमृत होगा मन सारा
अंजुलि भरकर अर्पित कर दो
गंगा में सर्वस्व तुम्हारा



-Snehil Srivastava
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प्रवृत्ति
Instinct

प्रवृत्ति के प्रकार हैं निर्विकार
कोई है मधुर तो कोई वृहद् संसार
कुछ प्रेम परिपूर्ण तो कुछ हैं अपूर्ण
किसी में दर्शन मिले तो किसी में जीवन का सार
अनूठे भी हैं कुछ और कुछ हैं अदृश्य
किसी-किसी में मिलता है अद्भुत साहचर्य
यशश्वी प्रवृत्ति मिलती कहीं तो कहीं मिले आशीष रुपी
देखते ही बनता है इनका हर एक रूप सौंदर्य
विराम पाया कहीं किसी ने अनंत की गोद में
करुणा मिली तो धन्य हुआ इसका तात्पर्य
लोलुपता संलग्न थी तो दानी भी एक अर्थ था
पूरक थे एक दूसरे के एक ही था कार्य
मोह में बंधन मिला, मातृत्व में मुक्ति
जिसपर हुआ सब कुछ ही शिरोधार्य
क्रोध नहीं सही कभी, मौन है अभ्यास
खाली नही जाता कभी इस प्रवृत्ति का वार


-Snehil Srivastava
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वास्तविकता
Real reality

वास्तविकता ये है कि असत्य को सत्य
और सत्य को असत्य कहा जाता है
जो पकड़ा जाये वही चोर
और असली चोर बड़ा महात्मा समझा जाता है
तिजोरियों का सोना रखे रखे यूँ ही सड़ जाता है
और भूखा, भूख से तड़प तड़पकर मर जाता है
कहने को तो नेता सारे जनता ने चुने होते हैं
बाद में उस जनता को कौन कहाँ पहचानता है

जिसके पास है रुपया पैसा वो ही तो है कर्ता धर्ता
बाकियों के कर्म बस ईश्वर ही जानता है
खेतों को खून से सींचे किसान मरे हर रोज यहाँ पर
वो मरे तो मर जाने दो मेरा पेट तो भर जाता है
एक बार तो सच जानो सबकी बारी आती है
किसने यहाँ अमृत पिया है, हर कोई मर जाता है
चाहे जितना लूट लो तुम सब, पर अदना इंसान बेचारा
खाली हाथ ही आता है और खाली हाथ ही जाता है


-Snehil Srivastava
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बीता बचपन
Childhood, the beauty of life

वो जो दूसरी छत है,
जिसपर एक जंग लगी साइकिल
पुरानी टूटी चारपाई
और एक मटमैली कुर्सी रखी है
जिसके दोने हत्थे नदारद हैं
वहीं कोने में पड़ा हुआ
आम की लकड़ी का बना बैट
जिसके सहारे जाने कितनी दफ़ा
एकदम हारे हुए मैच जीते थे
वहीं टांड़ पर दीवार की छाँव में
गोरैया का घोंसला भी है
आज ही देखा इसमें दो चूजे
शोर मचाये हुए हैं
बड़े करीने से बनाया है गोरैया ने ये घोंसला

अगर अभी मैं आँखें बंद कर लूँ
तो क्या ये सारे पल
लौट न सकेंगे?


-Snehil Srivastava
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अधूरे किनारे
Unknown edges

मैंने सागर के किनारों को तो नहीं देखा
पर उसकी लहरों का किनारों से मिलना
और मिलकर लौट जाना, मुझे मेरी
भावनाओं से मिलता जुलता लगता है
मेरी भावनाएं विस्तृत हैं, उनका आगार गहरा है
किन्तु किनारे तक पहुँचने की क्षुधा
उसे हर बार खाली हाथ लौटने को
मजबूर कर देती है
हर किनारे मूक होकर इनके अधूरेपन से
खुद को पूरा करते हैं
मेरी भावनाएं कुछ खारी भी हैं
इनमें व्याप्त प्राण इसी कारण से
कसैले होते जा रहे हैं

कहाँ ये सागर, ये लहरें, ये किनारे
और कहाँ ये अधूरी भावनाएं
विस्तार इनका
इन दोनों के अधूरेपन पर
एक अनुत्तरित प्रश्न चिन्ह है


-Snehil Srivastava
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अभिव्यक्ति
Expressions

अभिव्यक्त होती जाएंगी हृदयगत सारी आशाएं
सत्य मन यदि कर दें अर्पण हर मलिन आकांक्षाएं

दृष्टि स्थिर, वाक् मृदु और चेष्टा जल सी हो कहीं
कोई कब फिर कैसे पाये हारने की दिशाएं

पर सुख से ईर्ष्या रखे वो मनुष्य होता है कहाँ
उसका दुःख भी अपना समझे वो ही मनुष्य कहलाये

त्यज्य दिया पाया जो कुछ भी एक कारण से यदि
अन्य कारण निर्मूल होकर अनंत में फिर मिल जाएं


-Snehil Srivastava
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इंडियन अंग्रेज
Indian Angrej

अंग्रेज़ियत भरे लहज़े से लबरेज़
एक इंडियन की भूख
'व्हाट्स इन दि मेनू' सरीखे प्रश्नों में झलक जाती है
और वहीं एक भारतीय पूछता है,
भैया खाना लगा दो, बड़ी जोरों की भूख लगी है
अंतर भाव का है, भूख तो सबकी एक जैसे ही होती है
कुछ कद्रदानों को सूट बूट में रहना,
उमंग से भर देता है। घोड़ी मिले
अभी चढ़ जाएं सेहरा बांधकर
वही अगले को नजरबट्टू से
नजरबन्द करना पड़ता है
कही मोहल्ले वालों की नजर न लग जाये
वैसे भी अंग्रेजी लहज़ा होना कोई गुनाह तो नहीं
पर यदि अंग्रेज़ियत इतनी ही पसंद है
जाओ भैया, कोनो रोके थोड़े है तुमका
चाल चलन, रहन सहन के इतने मायने नहीं
मन-कर्म से भारतीय हों तो बने कुछ बात
कुछ मित्र मण्डली, बड़ी आधुनिक होती जा रही है
या कहें हम दकियानूसी
पर इन इंडियन अंग्रेजों से तो भगवान् ही बचाये
बाकि कोई बात नहीं
डेमोक्रेसी है, जो है सब ठीक।


-Snehil Srivastava
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अभी कोई कहाँ
None, not yet

अभी कोई कहाँ मिला ऐसा
जिससे सब कुछ कहा जाये

जिसमें हो वही सूनापन
जैसे नदिया बहती जाये
किनारे जिसके बच्चे खेलें
और नाव अपना ठौर पा जाये
अभी कोई कहाँ मिला ऐसा
जिससे सब कुछ कहा जाये

जिसमें हो धरती सा धैर्य
संग जिसके जीवन सरल हो जाये
हर कठिनाई खेल लगे
हारा हुआ, जीता माना जाये
अभी कोई कहाँ मिला ऐसा
जिससे सब कुछ कहा जाये

जिसकी छुअन से अंतर्मन भी
फूलों सा खिलता जाये
सुगंध लगे जिसकी मोक्ष की भांति
ईश्वर से अंतिम मिलन हो जाये
अभी कोई कहाँ मिला ऐसा
जिससे सब कुछ कहा जाये

जिसकी बोली में अमृत फूटें
सुनकर हृदय धन्य हो जाये
और रंग सुनहरे ओढ़े वो जब
आकाश धरा मिल एक हो जाएं
अभी कोई कहाँ मिला ऐसा
जिससे सब कुछ कहा जाये



-Snehil Srivastava
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फ़िल्मी लाइफ
Filmy Life

मैं जरा फ़िल्मी हूँ
मुझे हर वस्तु में एक कहानी नज़र आती है
चौराहे की लाल, पीली, हरी बत्तियां
सड़कों किनारे लगे फलों के ठेले
और वो किनारे वाली चाय की दुकान
जैसे बिक रहा हो कहानियां लिखने का जरुरी सामान
यूँ ही पेड़ के नीचे बैठा पैबंद लगाता टेलर
मोटर साइकिलें ठीक करने वाला मैकेनिक
और पास ही में फूलवाले का शहरी बागीचा
जैसे बिछ रहा हो किसी सेट पर फ़िल्मी गलीचा
कोने पर इस्त्री वाला, कोयले से आग बनाता
रात को सिक्यूरिटी वाले भैया की सीटी, फिर सन्नाटा
पान वाला पनवाड़ी बेचे बनारसी और मघई पान
जैसे कोई बच्चन नाचे गाये इन्हें पहचान
एक टीन से ढंपा छोटा घर भी है
कुत्तों का रोना, दुःख का सन्दर्भ भी है
पिछले घर के बच्चे के रोने से हूँ मैं जरा परेशान
क्या है आखिर मेरी इस फ़िल्म का नाम?

पर मेरा फ़िल्मी होना झूठ नहीं
इन्हीं जीवन पात्रों में मुझे जिंदगी नज़र आती हैं


-Snehil Srivastava
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अपराध
Crime of innocent

बीते दिनों एक वाकया हो गया
एक गरीब के हाथों एक अपराध हो गया
वो गांव से शहर गुड़ बेचने आता था
और सड़क किनारे अपनी छोटी सी ठेलिया लगाता था
उसके घर में माँ बाप, भार्या और तीन छोटे बच्चे थे
जीवन तो क्या कहें पर मन सबके सच्चे थे
तनिक सी आय में बसर करना मुश्किल था
गरीब क्या करता, वो आखिर किस काबिल था
और फिर एक दिन, उसने अपनी ठेलिया बेच दी
गांव छोड़ शहर में बसने की सोच ली
मन में ठाना कि एक दिन सब ठीक हो जायेगा
और तब सारा परिवार सुख की बंसी बजायेगा
धीरे धीरे समय बीता, पर कुछ भी था न बदला
गांव छोड़ शहर आकर भी है आज तक कोई संभला?
अपराध बहुत से होते हैं, पर मिट्टी तो अपनी माँ है
जो सुख अपने गांव में है, वैसा सुख और कहाँ है?


-Snehil Srivastava
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जुम्मन मियां की चप्पल
Jumman Miyan Ki Chappal

रही सही कसर तब पूरी हो गयी
जब जुम्मन मियां की चप्पल चोरी हो गयी
पिछले इतवार को ही सवा रुपये देकर
लाला की दुकान से लाये थे
लाला बोले- जुम्मन मियां, ले जाओ
तुम भी क्या याद करोगे,
कितनी मजबूत चप्पल दी है लाला ने,
दो अढ़ाई बरस कहीं नहीं गए
चाहो तो कोसों नाप लो, घिस जाये तो नाम बदल देना

बेचारे जुम्मन मियां, सर पकड़े बैठे हैं
चप्पल के चोरी हो जाने के गम में
अभी तो पैर में लगा घाव भरा भी नहीं था
अब तो भरने से रहा
डॉक्टर साहब, ऐसी कड़वी दवा देते हैं
की जी मिचला जाता है

अब कहाँ से जोडें इतने रुपये
की नवी जोड़ी लेवें
अम्मीजान वैसे ही, खटिया पकड़े हैं
पानी बरसा नहीं, खेत सूखे पड़े है

गांव में उड़ती उड़ती ख़बर है
कि कोई बाहेरि है, जो माल असबाब चुराकर
खुद ही माल पुआ काट रहा है

जुम्मन मियां रात की पहरेदारी में हैं
इकलौती बकरी को खुले में बांधे हैं
खट्ट की आवाज़ हुई रात के डेढ़ बजे
ये दौड़े की वो दौड़े
और धर लिया चोर को
पता चला ई तो अपना सुखिया है
पर वो चोरी खातिर नहीं आया
चप्पल रखने आया था
अम्मा गलती से पहन गयीं रहीं
बुजर्ग हैं, दिखता नहीं अच्छे से
तो पहले काहे नहीं बताये?
डर गए, कि जुम्मन चाचा गुस्सा करे तो।
माफ़ कर दो चाचा।

सुखिया लौटने लगा।
ढपक ढपक कर,
घाव तो उसके पैर में भी है।


-Snehil Srivastava
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कोई और या मैं
Unknown me

उसका चीथड़ों में लिपटा शरीर
बिखरे बाल
और यहाँ वहाँ हुए घावों से रिसता खून
रह रहकर
मुझे मेरे मानव होने पर संदेह दिला रहे थे

वहीं कुछ दूर बैठे गवैये लोकगीत गा रहे थे
कि-
"दुई मछरी जब छटपट करिहै
दुई थरिअन मा खाना भरिहै"

तो क्या ये मेरी छटपटाहट है
कि कोई यूँ तड़प रहा है
और मैं रोज की तरह
जिए जा रहा हूँ, अनभिज्ञ
नहीं। घाव शारीरिक ही हों
या खून किसी और का बहे
जब मेरी आँख से भी टपके
तो कहूँ कि ये असल है,
मुझमे भी है थोड़ा खून
वरना उसमें और मुझमे
कोई फर्क नहीं।

मेरा शरीर ग्लानि के चीथड़ों में लिपटा हुआ होगा
मेरा मौन, बालों की तरह बिखरा हुआ होगा
और मेरे बिंधे हृदय से खून रिसेगा
और तब
मुझे मेरे मानव होने पर यकीन होगा


-Snehil Srivastava
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मैं ठहरी लड़की!
Because I am a girl!

मैं ठहरी लड़की।
जिसके जन्म पर माँ तो मुस्कुरायी
बाकियों के चेहरे पर मुर्दनी थी छायी
मेरी किलकारियों को शोर कहा जाता
ना छठी, ना बरही ना ही कोई और स्वांग रचा जाता
मुझमें जीवन था छुईमुई सा कोमल
मेरे गालों को छुओ तो लगे जैसे मखमल
मुझे अछूता जान रहते सब मुझसे दूर
मैया भगवती क्या यही था तुमको मंजूर
पर मैं ठहरी लड़की।
मेरा रुदन अनसुना करते थे सब
माँ चुपके से गोद में उठा पुचकारती थी तब
मेरी टकटकी, आँखों की झपकन
निहारती मेरी माँ हर पल हर दम
देखकर ये मातृ प्रेम सारे होते विक्षुब्ध
अकेला छोड़ मुझे, भूलते मेरी सुधबुध
अज्ञानी वे सारे, जननी को न समझे
यदि नहीं रही मैं, हो जायेगी प्रलय
पर मैं ठहरी लड़की।

मुझमें करुणा है, ममता है
सर्व अस्तित्व मुझसे ही बनता है
मैं हूँ क्षमादायनी, मैं ही ब्रम्ह विस्तारणी
मुझमें ही व्याप्त है जनन और जननी।

-Snehil Srivastava
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'तुम और मैं'
unreal You unreal Me

अगर तुम मन ना मिला सके
तो कमसकम हाथ ही मिला लेते
माना मैंने, तुम्हें तुमसे कमतर को छूना
जरा बुरा लगता है। पर इसमें मेरी क्या गलती
मैं तो बस तुमसे वाक़िफ़ होना चाहता था
तुम्हारे मैले मन से। जिसपर गन्दगी की
एक मोटी चमकती परत जमी हुई है
जो साल दर साल
और भी काली होती जा रही है
हाँ एक बार तुमने मुझे
तरह तरह के स्याह होते
मनवालो से मिलवाया था
पर वो सपना तो उसी सुबह
टूटकर बिखर गया था
और मैं तुमसे हाथ मिलाने को
मन का मिलना समझ बैठा


-Snehil Srivastava
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'एक आखिरी आम बात'
At last as usual

कवितायें खोना अब एक आम बात हो गयी
कभी इसके लिए तो कभी उसके लिए
इनका आना, और कहीं धुंधलके में खो जाना
कि जैसे कोई परदेसी अपना ठौर ढूंढे
कभी इस शहर कभी उस शहर, हाथ पर मिटा सा पता लिए
एक एक शब्द किसी शिल्पकार की तरह
कागज़ पर भावों को उकेरे
चाहकर भी ये शब्द कुछ न बोलें
ढल जाएं फिर से खोने के लिए
पहले इनमें गरमाहट थी, जिससे लोग सिहर उठते थे
अब इनमें ऐसा कुछ भी नहीं
जैसे बनीं हों केवल हंसाने के लिए
कोई समझे तो ही समझे
इन्हें संजो लेना होगा, वरना
इनका खोना आखिरी होगा
और तब, क्या बचेगा जीने के लिए
कवितायें खोना अब एक आम बात हो गयी


-Snehil Srivastava
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'याकि सच या फिर सपना'
Truth in a dream

और फिर मेरा सच एक सपना बन गया
ये शुरू कब हुआ मुझे याद नहीं
मैं हूँ इसमें, पर कहीं दिखता नहीं
इसमें न कोई रंग हैं, न ही आवाजें
ना ही दिन और ना ही कोई रातें
ये अनवरत है किन्तु दिशा हीन है
जैसे कोई सपना अपना और उस सपने की गहरी नींद है
इसमें रास्ते हैं, पर किसके वास्ते?
सबका दुःख दर्द शायद यही हैं बांटते
इनमे नीरसता नहीं, अलौकिकता है, सार्वभौमिकता है
इनमें ही सच का, एक सत्य रूप दिखता है
काश ये सपना, सपना ना होता
मैं यूँ ही जागता, कभी ना सोता
काश ऐसा होता, तो क्या ना होता
ये सपना ना होता, ये सच ही होता
और फिर मेरा सच एक सपना बन गया



-Snehil Srivastava
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'राम राम, भाईजान!'
Ram Ram, Bhaijaan

वो कहते थे राम राम, हम बोलें उनको भाईजान
वो दोहे हिंदी गाते थे, हम नज्में उर्दू सुनाते थे
वो काशी के रहने वाले, हमारे लखनवी अंदाज़ निराले
वो आँखों में काजल लगाते थे, मूंछों पर ताव दिलाते थे।
हमारी मूंछें तो थी भी नहीं, हम आँखों को सुरमयी बनाते थे
वो प्रेम पाश में बंधे हुए, हम इश्क़ इबादत करने वाले
वो साग चने का खाते थे, हम मुर्ग मसल्लम करने वाले
वो अचकन पहना करते थे, हम कुर्ते पैजामे वाले
वो सच के साथी कहलाते थे, हम झूठ से नफरत करने वाले
वो होली दीवाली मनाते थे, हम रोज़ा इफ्तारी करने वाले
वो भगत सिंह पर इतराते थे, हम अशफ़ाक़ उल्ला पर मरने वाले
उनका हृदय था जल शीतल सा, हमारा दिल भी था पाक साफ
वो मक्का मदीने गए नहीं, हम काशी के हुए नहीं
हम उनके साथ जिए नहीं, वो हमारे साथ जिए नहीं
उनका ईमान था मुसलमान, हमें था सनातन धर्म का ज्ञान
उनका दीन भी एक ही था, हमारा भी ॐ में बसा हुआ
वो कहते थे राम राम, हम बोलें उनको भाईजान


-Snehil Srivastava
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© Snehil Srivastava

Tuesday, December 22, 2015

'एक नया मंज़र'
Kaafila

हर बार की तरह इस बार भी
उस याद की एक झलक ज़ेहन में आते ही
टूटी कड़ियां जुड़ने सी लगीं
और फिर,
यादों का एक काफिला बनने लगा

जिसमें,
पहली मुलाकात का असर
कहीं दूर आखिरी छोरों पर नज़र आया
शुरुआत की नखरेबाज़ी
गलतियों की नज़रअंदाज़ी
कुछ रूठना, ज्यादा मनाना
हंसी ठिठोलियों का,
एक सिलसिला बनते जाना
उसी असर का हमकदम था
पर क्या करें,
ऊपरवाला बड़ा बेरहम था

काफिले के बीचोंबीच
चलते मुसाफ़िर
दिमाग में बैठे अहं के जानने वाले थे
और फिर वो कहाँ किसकी मानने वाले थे
वो लड़ते थे, इस वजह या बेवजह
साबित करने में लगे रहते
कौन है सबसे जुदा

और पहली कतार में
नफरत थी, सर उठाये
इसको जो भी कुछ समझाए
अपनी जान गंवाए
जहाँ पहली मुलाकात मासूम थी
वहीं आखिरी, मासूमियत से महरूम

सबसे आगे
इन सबकी तारीख लिखने वाला
सर झुकाये, सबसे जीता
खुद से हारा
वक़्त बेचारा, अनचाहे दिल से
काफिले को कहीं ले जा रहा था
किसी नए मंज़र की तलाश में

बस एक झलक से जुड़ी कड़ियां
शायद एक नयी कहानी लिख दें
'लोग मिलते रहे, काफिला बनता चला गया'

-Snehil Srivastava
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'तीस्ता'
Teesta

तीस्ता पुकारते थे उसे
उसका जन्म, उसकी मृत्यु तक
एक रहस्य ही रहा
पर कुछ पुराने लोगों का कहना है
कि उसकी पहली झलक से
उनके गांव में
पंछियों का कलरव,
गायों का रंभाना,
खेतों का लहलहाना
वृक्षों को झूम जाना
शुरू हुआ था
उसकी आवाज़ से,
धरती मुस्कुरा उठती थी
उसके चलने से नदी
हाहाकार करने लगती थी
उसके बोल शहद की भांति
मीठे थे। जिनमे दुःख हरने का
अनोखा सत्व था
किसी ने उसे रोता नहीं देखा
एक बार भी नहीं
हाँ एक बार उसने
उदासी की सीमा तक
दौड़ जरूर लगायी थी
और फिर किसी ने उसे
वापस आते नहीं देखा

तीस्ता का जन्म खुशियों का जन्म था
उसका वापस ना आना, खुशियों का जाना था
किसी माँ को विश्वास है,
तीस्ता एक दिन वापस आएगी
इस बार कोई रहस्य नहीं
किसी और रूप में ही सही

तीस्ता शायद एक आम लड़की थी
काश तीस्ता मेरी बेटी होती

-Snehil Srivastava
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'दो अंगूठियां'
The two rings

मेरे हाथ की दोनों अंगूठियां
एक दूसरे से बात नहीं करतीं
एक को खुद के सोने का होने पर गुमान है
तो दूसरी इस बात से नखरे खाती है
कि वो ज्यादा उजली है, चाँदी जो ठहरी
पर शायद इन दोनों को ही नहीं पता
कि इन्हें बनाने वाला एक ही था
उसी ने इन्हें ये रूप दिया
उसी ने इनमें मोती और पत्थर जड़े
दोनों को ही आग में तपाया गया,
हथोड़ियों से पीटा गया
तब जाकर कहीं
इन्हें इनका ये वर्तमान स्वरुप मिला
वरना एक जाने किस गर्त में पड़ी रहती
और दूसरी पत्थरों संग पत्थर ही रहती

यदि ये एक साथ मिल, नवग्रहों की भांति
वर्तमान की परिक्रमा करें
और स्वयं का दम्भ छोड़ दे
तो इनके मध्य का मौन
अमिट भूत को
नश्वर भविष्य बना देगा

-Snehil Srivastava
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© Snehil Srivastava

Thursday, December 17, 2015

'थोड़ा सा खून, वो टूटी नींद'
'Little blood that woke me up'

पिछली दफ़ा जब मेरी उंगली कट गयी थी
और तुम झट से डेटॉल की शीशी उठा लायी थी,
सच जानो, इतनी मासूम न तुम उससे पहले लगी थी
और अब शायद लगोगी भी नहीं।
पर इत्ता सा खून बहने पर, वो भी किसी और का,
कोई इस तरह से रोता है क्या?
मासूम हो, माना। बेवक़ूफ़ भी हो क्या?
और फिर खून भी तो दो मिनट में बंद हो गया था
फिर भी तुम मुझे डॉक्टर के पास ले गयी
जैसे मैं कोई छोटा बच्चा हूँ।
तुमने शायद ध्यान नहीं दिया-
डॉक्टर साहब, तुम्हारी बातों पर हंसे जा रहे थे
जब तुमने कहा कि, इमरजेंसी है।
लेकिन मैं नहीं हंसा था, बाद में डांट थोड़े खानी थी मुझे

एक बात पूछूँ, सच बताना-
तुमने मुझे माफ़ कर दिया न, जो मैंने तुम्हें उस दिन बेवजह डांट दिया था
जब तुम्हें बुखार था, और रात को ढाई बजे
तुमने मुझे जगाकर पानी माँगा था।
क्या हुआ जो मैं देर से सोया था, ऑफिस के काम की वजह से
ये थोड़ा सा खून, वो टूटी नींद
कभी कभी जरुरी होते हैं, जताने के लिए, बताने के लिए।
कि कोई है, साथ। हमेशा।

ईश्वर करे, तुम यूँ ही मासूम रहो
और मैं तुमसे कुछ सीख सकूँ।

-Snehil Srivastava
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© Snehil Srivastava

'काफिरों की बस्ती'
'City of Infidels'

बड़ा वाहियात सा ख़याल है,
कि अगर कहीं काफिरों की बस्ती होती
तो कैसा होता?
ये मुए काफ़िर तो काफ़िर ही ठहरे,
ये इंसान नहीं होते, इनकी तो माँयें भी नहीं होती
पर इनकी बस्ती क्या कुछ अलग नहीं होती?
घर होते? कुएं? भाईचारा होता, मैं नहीं मान सकता
और इनके बच्चे आपस में खेलते क्या?
ऊंच-नीच, बरफ-पानी, एक्कल-दुक्कल या वो छुपी छुपान। न, हो ही नहीं सकता।
इनके यहाँ हस्पताल भी नहीं होते होंगे
ना ही स्कूल। अनपढ़ जो ठहरे ये काफ़िर।
पर कहते हैं- ये खुदा, भगवान् हर जगह है
तो क्या इन काफिरों की बस्ती में भी होगा?
मुझे तो नहीं लगता। करेगा भी क्या इनके यहाँ?
पर इन्हें बनाया किसने होगा?
शैतान ने। ये तो पक्की बात है।
हमारे यहाँ देखो, कभी कहीं खून का एक कतरा भी बेहता देखा है। बात करते हो।
हर तरफ मोहब्बत जज़्ब है हमारे यहाँ।
कोई गम नहीं, किसी को भी।
हमारे यहाँ तो कोई मरता भी नहीं। अरे कहने में क्या जाता है।
उसके पास इतना वक़्त नहीं कि हर ज़िक्र की तफ्तीश करे।
काफिरों की बस्ती दोज़ख है
और हमारी जन्नत।
बाकी तो एडजस्ट हो जाता है।
एक बात कहूँ, बुरा मत मानना
तुम मेरे लिए काफ़िर और मैं? जो चाहे कह लो मुझे
कहने से कुछ नहीं होता।
वैसे उसके पास हर ज़िक्र का हिसाब है, याद आ गया जरा।

-Snehil Srivastava
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'सूखे हुए चावल'
'One plate rice and a hungry child'

सूखे हुए चावल, जब आज मुझे सड़क के किनारे पड़े मिले
तो मुझे किसी फ़िल्म में भूख से बिलखते दो बच्चे याद आ गए
यूँ तो फ़िल्में पटकथा के साथ चलती हैं
किन्तु यही फिल्में हमारे इसी संभ्रांत समाज का दर्पण भी हुआ करती हैं
एक रोज मैंने भी
कुछ सूखी रोटिया, थोड़ी बची हुई सब्जी और एक कटोरी दाल फेंक दी थी
ये और बात है, उस सारे दिन मुझे 'किसी और' वजह से
भूखा रहना पड़ा था
ये सूखे, सड़क किनारे पड़े हुए, चावल
जब बने होंगे, मुझे लगता है-
बड़ी अच्छी महक आयी होगी
और जिसने भी इन्हें पकाया होगा
उसका मन इसी बात को सोचकर तृप्त हो गया होगा
कि खाने वाले की भूख, इसके उबलने से आने वाली महक से ही मिट जायेगी
पर जब ये किसी की भूख मिटाने के लिए बने थे
तो यहाँ यूँ पड़े ही क्यों हैं
काश आज कोई सारा दिन भूखा न रहा हो
काश ये भी किसी फ़िल्म की कहानी ही होती
काश ये चावल 'किसी और' की भूख मिटा सकते
काश...!

-Snehil Srivastava
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Sunday, December 13, 2015

'तितली सारंगी'
'Titli Sarangi'

तितली सारंगी!
क्या नाम है। कि जैसे मधुबन मनस्वी हो चला है
बड़ी बड़ी आँखें, ऊँचा मत्था। कि जैसे जल तरंग,
यशश्वी हो चला है
कारे केश, कारा काजल।
नख शिख सब हो जैसे भाव कोई विह्वल
पलकें मानो तो कोमल पंखुड़ियां
हंसी देखो, माला मोती और लड़ियाँ
पारदर्शक मन। कि जैसे यौवन निर्वस्त्र पड़ा है
अधरों पर ओस की बूँदें; बोलें, मुस्काएं आंखें मूंदें मूंदें
कर्ण लगें कान्तिमय जब कुंडल उनपर हिलें
हस्त हैं कि लगें जैसे कोई चित्र खींचे
उनकी रेखाएं मासूमियत को भींचे
सीना गर्व रूप लिए सांसों के साथ में
कभी उठे कभी गिरे, अपने ही प्रहास में
कटि, वृक्षों की भांति मौन हाहाकार लिए
नितम्ब करे नृत्य जो, नाचे हर एक हृदय
जंघाओं का दर्प दिखा दर्पण के पार में
पैरों में पायल की छनक उस दूसरे संसार में
मेरा ये वर्णन माना जाये तुम्हारे नाम के तर्पण में
आदि अनंत तक जाना जाये, हर ब्रम्हांड के सृजन में
तितली सारंगी। कि जैसे इस तुच्छ मानव का जन्म पूर्ण हो चला है

-Snehil Srivastava
Picture credit: www.gabby251.deviantart.com
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'सही मायने में...'
The real reality

हिम प्रदेश से टप टप कर बहता पानी
जब धरा अपनी अंजुलि में भरती है
और तब मेरा सृजन मुझसे कहता है
कि इन पलों को सहेज लेना ही सही मायने में
जीवन सरिता है

प्रकृति की उत्कृष्टता फूलों का रूप लिए
जब कण कण में महकती है
और तब मेरा जन्म मुझसे कहता है
कि इन पलों को जी लेना ही सही मायने में
सम्पूर्णता है

दसों दिशाएं विभिन्न मार्ग लिए
जब एक दिशा में पहुंचतीं हैं
और तब मेरा मर्म मुझसे कहता है
कि इन पलों को समझ लेना ही सही मायने ने
मार्मिकता है

ठण्ड में फैले कुंहासे से छनकर आती धूप
कुछ गुनगुनी सी लगती है
और तब मेरा अंतर्मन मुझसे कहता है
कि इन पलों की संजों लेना ही सही मायने में
कविता है

-Snehil Srivastava
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Friday, December 11, 2015

'हंसी भी तो जरुरी है, पर आज नहीं फिर कभी'
Hindi, some other time

और आज मेरे कुछ दोस्तों ने गोरे अंग्रेज को
थोड़ी हिंदी सिखा दी
'मालगाड़ी', जिसे जहान की खूबसूरती से लबरेज
महिलाओं से भरी गाड़ी कहा गया
हंसी में कही बात, हंसी तो नहीं
फिर किसी ने दिल्ली में प्रचलित कुछ पंजाबी शब्द कह दिए
'टोटा', काश इसका अर्थ कुछ और ही होता
'पटाका', कोई तो इन्हें समझाए
शब्दों से कोई यूँ ही नहीं प्यारा हो जाता
हमारी हिंदी में प्रेम है, सौहार्द्र है
और वैसे तो सिखाने को क्या कुछ नहीं है
तुम सबने हंसकर, खूबसूरत को खूबसूरत तो नहीं कहा
चलो फिर भी
हंसी भी तो जरुरी है, ऐसे ही सही
पर हाँ, रह ही जाएँगी बातें अधूरी अनकही
और मुझे तुम पर हंसना नहीं
मुस्कुरा दूँ तो ठीक। पर आज नहीं, फिर कभी

-Snehil Srivastava
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'कल की बात'
The beautiful past

आज मुझसे देर हो गयी, थोड़ा जल्दी में जो था
और तुमने मुझे देखते ही अपनी बाहों में भर लिया
तुम्हें मेरा देर से आना, अपने सीने से लगाना
आँखें बंद कर जरा सा शर्माना, इतना क्यों भाता था
मुझे मालूम है, यूँ अकेले बैठकर तुम मुझे
घंटों सोचा करती थी, और ये भी
कि तुम्हारा अल्हड़पन मुझे कितना जरुरी लगता है
यही एहसास तुम्हारे मखमली गालों को सुर्ख कर देता था
और तुम्हारे नर्म होंठ लरज़ से चमक जाते थे
तुम्हारा ना संवरना मुझे तुम्हारे और करीब लाता था
तुम्हारी शरारत भरी छुअन मुझे आज भी याद है
जब तुम्हारे भीतर छुपा बचपन तुमपर हावी हो जाता था
और मुझे जाने कितनी चपत पड़ा करती थी, बेवजह
तुम खराब सी बस हंसा करती थी, बेपरवाह
मैं झूठा नाराज़ होता, तुम मुझे सच्चा म
नाती
मैं तुम्हें आँखों से डराता, तुम मासूम सी चुप हो जाती
पर आज मुझसे देर नहीं हुई, चाहकर भी
तुम नहीं हो यहाँ, सिर्फ अकेलापन है
तुम्हारा होना, जैसे अभी दो पल पहले की ही बात हो
कभी कभी देरी कितनी खूबसूरत हुआ करती है

-Snehil Srivastava
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'माचिस की आखिरी तीली'
The last Matchstick

आज जब मैंने माचिस के डिब्बे को खोला
तो उसमें छिपी वो आखिरी तीली सेहम उठी
नियति ने उसे
घरों को जलाना,
सिगरटें सुलगाना,
सांप्रदायिक दंगों में सबकुछ राख बनाना
और ना जाने कितने विषम कामों में बाँधा था
वो अपने उन दिनों को याद करती
जब कोई माँ दीप जलाती
या कभी उसके ताप से चूल्हे पर स्वादिष्ट खाना पकाती
उसने तो ढिबरी तक को रौशनी दी थी
उसी से प्रभु की आरती पूरी हुई थी
पर आज जब मैंने माचिस के डिब्बे को खोला
तो उसमें छिपी वो आखिरी तीली सेहम उठी
आज वो थोड़ी नम थी
जाने क्यों
मुझे उसकी नमी कुछ और ही महसूस हुई
जैसे कोई सारी रात सुबक सुबककर रोया हो
मैंने उसे हौले से उठाया, और सच मानों
मैं खुद को ही नहीं संभाल पाया
कोरों पर थमा आंसू ढुलककर
बहने लगा
और उस आखिरी तीली का नम हृदय
मुझमें होकर रोने लगा
नियति कुछ भी रही हो
उसका जन्म
किसी की मृत्यु का कारण नहीं बन सकता
आज कुछ भी हो जाये
इस तीली का हृदय आज नहीं जल सकता
मैंने माचिस के डिब्बे को बंद कर दिया
उसमें बंद वो आखिरी तीली चहक उठी

-Snehil Srivastava
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Tuesday, December 8, 2015

'भावनाएं'
Emotions

दो चार दिनों बाद
भावनाएं भी मर ही जाती है
जो आज है वो कल नहीं था
और जो कल होगा वो आज नहीं है
किन्तु इनमें कुछ तो जुड़ाव है
जो उनमें सामन्जस्य पैदा करता है
हर मरण एक जन्म का द्योतक है
और हर जन्म एक अंत का
भावनाएं इस भवसागर में कभी डूबती है
और कभी उबर जाती हैं
पर भावनात्मक होना
गलत तो नहीं
यदि ये क्रोध हैं
तो प्रेम भी यही हैं
यदि ये ईर्ष्या कहलाती हैं
तो इन्हें ही तो स्नेह कहा जाता है
भय भी यही हैं
अजेय भी यही
यदि इनमे रूप की धूप है
तो इन्हीं में चारित्रिक छाँव है
क्या हुआ, कुछ भावनाएं यदि पूर्ण न हुई
नियति पूर्णता में नहीं
अधूरी सम्पूर्णता में है
दो चार दिनों में,
नयी भावनाएं रुधिर में
एक बार फिर संचरण करेंगी
कोंम्पलें फिर फूटेंगीं
पुष्प खिल जाएंगे
भावनाएं हंसेंगी,
सदा के लिए
होगा कितना विहंगम दृश्य
भव्य अद्भुत अतुलित
-Snehil Srivastava
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© Snehil Srivastava

Monday, December 7, 2015

''गहरी आँखों वाली, अल्हड़ सी'
Gehri ankhon wali, Alhad si

और फिर एक दिन मुझे तुम मिली
गहरी आँखों वाली, अल्हड़ सी
तुम्हें देखा नहीं, बस महसूस किया मैंने
सब कुछ सुन्दर था तुममें, पर क्यों थी वो बेबसी
पूछा तो तुमने आँखें बंद कर लीं
तुम्हारी बंद आँखों में थी अनछुई हंसी
तुम्हारी नरम छुअन कुछ अलग है
अपनापन है जैसा कभी मिला ही नहीं
सताना, झगड़ना फिर मनाना
और फिर दूर चले जाना, कि जैसे हम कभी मिले ही नहीं
तुम्हारी महक सोंधी है, बारिश में भीगती मिट्टी सी
करीब होने के डर से तुमने मुझे भिगोया ही नहीं
पर जो भी है सुकून है इसमें, कि जैसे एक शान्त बहती नदी
डूब जाऊं तो भी कोई गम नहीं
एक बात कहूँ, या फिर रहने दूँ
खो जाऊं आसमान में जैसे उड़ता मासूम पंछी
और फिर एक दिन मुझे तुम मिली
गहरी आँखों वाली, अल्हड़ सी

-Snehil Srivastava
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© Snehil Srivastava