और फिर मेरा सच एक सपना बन गया
ये शुरू कब हुआ मुझे याद नहीं
मैं हूँ इसमें, पर कहीं दिखता नहीं
इसमें न कोई रंग हैं, न ही आवाजें
ना ही दिन और ना ही कोई रातें
ये अनवरत है किन्तु दिशा हीन है
जैसे कोई सपना अपना और उस सपने की गहरी नींद है
इसमें रास्ते हैं, पर किसके वास्ते?
सबका दुःख दर्द शायद यही हैं बांटते
इनमे नीरसता नहीं, अलौकिकता है, सार्वभौमिकता है
इनमें ही सच का, एक सत्य रूप दिखता है
काश ये सपना, सपना ना होता
मैं यूँ ही जागता, कभी ना सोता
काश ऐसा होता, तो क्या ना होता
ये सपना ना होता, ये सच ही होता
और फिर मेरा सच एक सपना बन गया
ये शुरू कब हुआ मुझे याद नहीं
मैं हूँ इसमें, पर कहीं दिखता नहीं
इसमें न कोई रंग हैं, न ही आवाजें
ना ही दिन और ना ही कोई रातें
ये अनवरत है किन्तु दिशा हीन है
जैसे कोई सपना अपना और उस सपने की गहरी नींद है
इसमें रास्ते हैं, पर किसके वास्ते?
सबका दुःख दर्द शायद यही हैं बांटते
इनमे नीरसता नहीं, अलौकिकता है, सार्वभौमिकता है
इनमें ही सच का, एक सत्य रूप दिखता है
काश ये सपना, सपना ना होता
मैं यूँ ही जागता, कभी ना सोता
काश ऐसा होता, तो क्या ना होता
ये सपना ना होता, ये सच ही होता
और फिर मेरा सच एक सपना बन गया
-Snehil Srivastava
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© Snehil Srivastava
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