कवितायें खोना अब एक आम बात हो गयी
कभी इसके लिए तो कभी उसके लिए
इनका आना, और कहीं धुंधलके में खो जाना
कि जैसे कोई परदेसी अपना ठौर ढूंढे
कभी इस शहर कभी उस शहर, हाथ पर मिटा सा पता लिए
एक एक शब्द किसी शिल्पकार की तरह
कागज़ पर भावों को उकेरे
चाहकर भी ये शब्द कुछ न बोलें
ढल जाएं फिर से खोने के लिए
पहले इनमें गरमाहट थी, जिससे लोग सिहर उठते थे
अब इनमें ऐसा कुछ भी नहीं
जैसे बनीं हों केवल हंसाने के लिए
कोई समझे तो ही समझे
इन्हें संजो लेना होगा, वरना
इनका खोना आखिरी होगा
और तब, क्या बचेगा जीने के लिए
कवितायें खोना अब एक आम बात हो गयी
कभी इसके लिए तो कभी उसके लिए
इनका आना, और कहीं धुंधलके में खो जाना
कि जैसे कोई परदेसी अपना ठौर ढूंढे
कभी इस शहर कभी उस शहर, हाथ पर मिटा सा पता लिए
एक एक शब्द किसी शिल्पकार की तरह
कागज़ पर भावों को उकेरे
चाहकर भी ये शब्द कुछ न बोलें
ढल जाएं फिर से खोने के लिए
पहले इनमें गरमाहट थी, जिससे लोग सिहर उठते थे
अब इनमें ऐसा कुछ भी नहीं
जैसे बनीं हों केवल हंसाने के लिए
कोई समझे तो ही समझे
इन्हें संजो लेना होगा, वरना
इनका खोना आखिरी होगा
और तब, क्या बचेगा जीने के लिए
कवितायें खोना अब एक आम बात हो गयी
-Snehil Srivastava
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© Snehil Srivastava
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