उसका चीथड़ों में लिपटा शरीर
बिखरे बाल
और यहाँ वहाँ हुए घावों से रिसता खून
रह रहकर
मुझे मेरे मानव होने पर संदेह दिला रहे थे
वहीं कुछ दूर बैठे गवैये लोकगीत गा रहे थे
कि-
"दुई मछरी जब छटपट करिहै
दुई थरिअन मा खाना भरिहै"
तो क्या ये मेरी छटपटाहट है
कि कोई यूँ तड़प रहा है
और मैं रोज की तरह
जिए जा रहा हूँ, अनभिज्ञ
नहीं। घाव शारीरिक ही हों
या खून किसी और का बहे
जब मेरी आँख से भी टपके
तो कहूँ कि ये असल है,
मुझमे भी है थोड़ा खून
वरना उसमें और मुझमे
कोई फर्क नहीं।
मेरा शरीर ग्लानि के चीथड़ों में लिपटा हुआ होगा
मेरा मौन, बालों की तरह बिखरा हुआ होगा
और मेरे बिंधे हृदय से खून रिसेगा
और तब
मुझे मेरे मानव होने पर यकीन होगा
बिखरे बाल
और यहाँ वहाँ हुए घावों से रिसता खून
रह रहकर
मुझे मेरे मानव होने पर संदेह दिला रहे थे
वहीं कुछ दूर बैठे गवैये लोकगीत गा रहे थे
कि-
"दुई मछरी जब छटपट करिहै
दुई थरिअन मा खाना भरिहै"
तो क्या ये मेरी छटपटाहट है
कि कोई यूँ तड़प रहा है
और मैं रोज की तरह
जिए जा रहा हूँ, अनभिज्ञ
नहीं। घाव शारीरिक ही हों
या खून किसी और का बहे
जब मेरी आँख से भी टपके
तो कहूँ कि ये असल है,
मुझमे भी है थोड़ा खून
वरना उसमें और मुझमे
कोई फर्क नहीं।
मेरा शरीर ग्लानि के चीथड़ों में लिपटा हुआ होगा
मेरा मौन, बालों की तरह बिखरा हुआ होगा
और मेरे बिंधे हृदय से खून रिसेगा
और तब
मुझे मेरे मानव होने पर यकीन होगा
-Snehil Srivastava
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© Snehil Srivastava
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