बड़ा वाहियात सा ख़याल है,
कि अगर कहीं काफिरों की बस्ती होती
तो कैसा होता?
ये मुए काफ़िर तो काफ़िर ही ठहरे,
ये इंसान नहीं होते, इनकी तो माँयें भी नहीं होती
पर इनकी बस्ती क्या कुछ अलग नहीं होती?
घर होते? कुएं? भाईचारा होता, मैं नहीं मान सकता
और इनके बच्चे आपस में खेलते क्या?
ऊंच-नीच, बरफ-पानी, एक्कल-दुक्कल या वो छुपी छुपान। न, हो ही नहीं सकता।
इनके यहाँ हस्पताल भी नहीं होते होंगे
ना ही स्कूल। अनपढ़ जो ठहरे ये काफ़िर।
पर कहते हैं- ये खुदा, भगवान् हर जगह है
तो क्या इन काफिरों की बस्ती में भी होगा?
मुझे तो नहीं लगता। करेगा भी क्या इनके यहाँ?
पर इन्हें बनाया किसने होगा?
शैतान ने। ये तो पक्की बात है।
हमारे यहाँ देखो, कभी कहीं खून का एक कतरा भी बेहता देखा है। बात करते हो।
हर तरफ मोहब्बत जज़्ब है हमारे यहाँ।
कोई गम नहीं, किसी को भी।
हमारे यहाँ तो कोई मरता भी नहीं। अरे कहने में क्या जाता है।
उसके पास इतना वक़्त नहीं कि हर ज़िक्र की तफ्तीश करे।
काफिरों की बस्ती दोज़ख है
और हमारी जन्नत।
बाकी तो एडजस्ट हो जाता है।
एक बात कहूँ, बुरा मत मानना
तुम मेरे लिए काफ़िर और मैं? जो चाहे कह लो मुझे
कहने से कुछ नहीं होता।
वैसे उसके पास हर ज़िक्र का हिसाब है, याद आ गया जरा।
-Snehil Srivastava
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© Snehil Srivastava
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