Path to humanity

Path to humanity
We cannot despair of humanity, since we ourselves are human beings. (Albert Einstein)

Monday, July 9, 2012

सपने अधूरे रह गए...


बहुत पुरानी बात कही गयी है, "कर्म करो फल की इच्छा मत करो", भगवान् श्रीकृष्ण  ने भी कहा है "कर्मण्ये वाधिकारस्ते  फलेषु कदाचनाकर्मफलेह्तुर भुरमा ते संगोस्त्वकर्मानी", पर ये बात आज तक किसी ने भी मानी हो ऐसा मुझे नहीं लगता। सभी कुछ कुछ पाने की कामना से काम करते हैं, ये अलग बात है कि ये कामना  सदैव स्वयं के लिए नहीं होती है। कोई अपने माता--पिता के लिया करता है, कोई अपने इष्ट मित्रों के लिए। कोई अपने बच्चों के लिए तो कोई अपने जीवनसाथी के लिए। कुछ लोग सिर्फ दूसरों के लिए अपना सारा जीवन न्योछावर कर देते हैं।
एक गोरय्या सारा दिन इधर से उधर, इस पेड़ से उस पेड़ तक उड़ती  फिरती रहती थी। थी बहुत ही छोटी तो उसे अपने ठौर के लिए कोई जगह नहीं मिल रही थी। यहाँ जाती तो कोई बड़ी चिड़िया पहले से उस स्थान पर होती और उसे बैठने तक ना देती। वहां जाती तो डर रहता कि कहीं उसे कोई नुकसान ना पहुँचा दे। यहाँ-वहाँ ढूंढ़कर जब उसे कोई स्थान ना मिला तो उसने सारी आशायें छोड़ दीं।
तभी सामने के एक छोटे से घर में उसने देखा कि लकड़ी का एक डिब्बा पड़ा हुआ है जिसमें ऊपर की ओर थोड़ा सा भाग गर्मी बरसात से सड़ कर टूट सा गया है, गौरय्या एक पल भी गंवाए बिना उस डिब्बे तक पहुँची और ये क्या, वो तो बड़ी आसानी से उसके अन्दर तक जा सकती है। उसकी ख़ुशी का ठिकाना ना रहा। ख़ुशी के मारे वो कभी इस डाल  पर बैठती तो कभी उस डाल पर। उसे अपना घोंसला बनाने के लिए एक सुरक्षित स्थान मिल गया था। उसी क्षण से उसने तिनके जोड़ना शुरू किया। घोंसले को मजबूत बनाने के लिए वो अपने आकार की तुलना में बड़े तिनके लेकर आती थी और उन्हें बड़े करीने से सजा रही थी। जब घोंसले की बुनियाद मजबूत बन गयी तो अब उसे कोमलता भी प्रदान करनी थी जिससे उसके बच्चे आराम से रह सकें। इसके लिए गौरय्या रुई के टुकड़े, छोटे छोटे पंख लाती और उसे तिनको पर सजाती जाती। कई दिनों की मेहनत के बाद उसका घोंसला बन गया। अपनी मेहनत से बने घर को देखकर उसे आत्मसंतुष्टि हो रही थी। संतुष्टि ये कि अब वो अंडे दे सकेगी और अपना परिवार सुरक्षित, सुंदर से घर में रखेगी। उसके जीवन की तुष्टि पूर्ण हो जाएगी। एक सुखी परिवार की।
कुछ ही दिनों के बाद गौरय्या ने दो अंडे दिए। छोटे छोटे अंडे, थोड़े सफ़ेद, कुछ लालिमा लिए हुए; एक शब्द में वर्णन करना हो तो 'प्यारे' थे वो अंडे। गौरय्या सारा दिन, सारी रात उन्हें सेती। इंतज़ार था अपने प्यारे बच्चों का। वो बैठे बैठे सोचती, जब उसके बच्चे बड़े होंगे तो वो उन्हें खाना खिलाएगी, पानी पिलाएगी। उन्हें बोलना सिखाएगी, उड़ना सिखाएगी। नित नए दिन वो तरह तरह के सपने देखती। कुछ दिनों के बाद अण्डों में से चूजे निकले; छोटे छोटे, प्यारे प्यारे। उनकी आंखें अभी बंद थी पर वो अपनी माँ के पहचान गए और ची ची करके उसे पुकारने लगे। गौरय्या ख़ुशी से अपने बच्चों को प्यार किये जा रही थी, उनसे बातें कर रही थी।
अब गौरय्या के सपने पूरे करने की बारी थी।
गौरय्या प्रतिदिन सुबह भोर होते ही बच्चों के दाना पानी की व्यवस्था करने निकलती। घरों के बाहर पड़े खाने की वस्तुएं, छोटे कीड़े; जितना हो सकता था वो अपनी चोंच में रखकर अपने घोंसले तक पहुँचती। उसकी आहट से ही बच्चे चहक उठते। जोर जोर से आवाज़ करते हुए माँ का स्वागत करते। गौरय्या बारी बारी से उन्हें खाना खिलाती, एक को खिलाती तो दूसराअपनी चोंच आगे करता,दूसरे को खिलाती तो पहला और जोर से आवाजें करता। जब दोनों मन भर के खा चुकते, गौरय्या पानी लेने एक बार फिर बाहर जाती। खाना खा के, पानी पी के बच्चों का मन तृप्त हो जाता और उनकी माँ का भी।
धीरे धीरे बच्चे बड़े होने लगे, अब वो अपने घोंसले से निकल कर डिब्बे में ही धमा चोकड़ी मचाते। कभी कभी एक दूसरे से लड़ते। तब माँ उन्हें समझाती, डांटती, दुलारती।
जैसे जैसे बच्चे बड़े हो रहे थे माँ की जिम्मेदारी बढ़ रही थी। अब वह उन्हें दुनिया की बातें सिखाना चाहती थी। वो चल तो लेते थे पर उन्हें उड़ना नहीं आता था। आता भी कैसे, उड़ने के लिए खुला आकाश चाहिए पर वो तो उस डिब्बे में बंद थे। गौरय्या ने सुरक्षित घर की तलाश में इस बात पर ध्यान ही नहीं दिया की उसके बच्चे उस डिब्बे से बाहर कैसे निकलेंगे। बाहर निकलने का स्थान बहुत ही संकरा है और ऊपर तक पहुँचने के लिए बच्चों का थोड़ा तो उड़ना आना ही चाहिए। अब गौरय्या के दुःख का कोई ठिकाना नहीं था, उसे कुछ समझ में नहीं रहा था कि वो क्या करे।
कुछ ही दिनों में बच्चे धूप और बाहर की आबो हवा के बिना कमज़ोर पड़ने लगे। शरीर को बढ़ने के लिए सिर्फ खाने की ही ज़रूरत नहीं होती उसे और भी बहुत सारी प्राकृतिक वस्तुओं की आवश्यकता होती है, जो उन चूजों को नहीं मिल रही थी। गर्मी के दिन थे। दिन में धूप होती, डिब्बा गर्मी से जलने लगता। जब गौरय्या पानी की तलाश में बाहर जाती, बच्चे डिब्बे में अकेले बंद पड़े रहते। कुछ दिनों तक तो बच्चे इस परेशानी को सह गए पर एक दिन जब गौरय्या दाने- पानी के लिए बाहर गयी, सूरज की तेज गर्मी डिब्बे को झुलसा देने को दृढ़ थी। बाहर दूर दूर तक पानी नहीं था।|
गौरय्या को आने में थोड़ी देर हो गयी, जब वो वापस अपने घोंसले तक पहुँची तो उसने देखा उसके दोनों बच्चे अकड़े हुए पड़े हैं।| रोज़ रोज़ की गर्मी से आज वो टूट गए और अपनी जान गवां बैठे। वहाँ  कोई नहीं था जिससे गौरय्या अपनी व्यथा कह पाती। वो बिलकुल शांत थी।
आज भी हर रोज़ गौरय्या उस डिब्बे के अन्दर जाती है और अपने अब सूखे हुए बच्चो को देखती है। वो आज भी शांत है, रोज़ की तरह।
सपने अधूरे रह गए। उसने कर्म किया, फल की चिंता नहीं की।



4 comments:

  1. very well said.. and a successful attempt Indeed!!

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  2. शुक्रिया विक्रम...

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  3. प्रयास अच्छा है परन्तु संषेप में लिखने का प्रयास करो|

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  4. धन्यवाद्, कोशिश जारी है...
    :)

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