Path to humanity

Path to humanity
We cannot despair of humanity, since we ourselves are human beings. (Albert Einstein)

Sunday, July 15, 2012

...फिर 'उसके' बाद


'उसके' बाद, सोचा दरगाह जाने को
खुदा के पास
हिम्मत नहीं हुई
ना जाने क्यों...
रातों को अकेले
आसमान के नीचे
उससे बातें करते करते
सो जाता था
मुंदी आँखों से
उससे लड़ता था
चीखता था।
सोचता था
सब कुछ पहले जैसा हो जाये
वो बीता हुआ पल
वापस लौट आये
या मैं कैसे भी करके
वहां पहुँच जाऊं
सब कुछ ठीक कर
वहीँ रुक जाऊं
बंद आँखों में आंसू भरे हुए
डरता था
कहीं आखें खुलीं तो
आंसू बह ना जाएँ
या यूँ ही सोते हुए
आंखें बंद ही ना रह जायें
हर नयी सुबह सोचता
कहीं दूर चला जाऊं
वापस आने के सारे रास्ते
तोड़कर बिखेर दूँ
चलता रहूँ अनवरत
आकाश कि दिशा में
उससे मिलने
जो शायद, वहीँ छिपा बैठा है
जाने क्यों...?
अचानक लगता
कुछ हुआ ही नहीं
सब कुछ है वहीँ का वहीँ
वही एहसास
वही रहना,
उसका बिलकुल पास
फिर सच आ जाता सामने
इतना भारी कि
सांसें उखड़ने लगतीं
कितनों ने इस भार को बांटा है
पर तुमने क्यों नहीं
इतने निष्ठुर कबसे हो गये तुम
सिर्फ अपना
हाथ रख देते मुझपर
एक बार कह देते-
सब ठीक हो जायेगा
या सिर्फ 'वो' एक शब्द
पर तुमने कुछ भी नहीं कहा
चुप रहे सदा
खुद में
खुद को जज़्ब किये हुए
एक बार कहा होता मुझसे
पास होकर भी
तुम इतने दूर थे
बेचैन रहता था
तुम्हें पाने को
तुम्हें पाकर भी न पा सका
अब कहाँ मिलोगे तुम
दरगाह में?
सपने में?
आँखों में?
मेरे अन्दर?
खोज रहा हूँ तुम्हें
खुद में
अपने बहुत अन्दर
दरगाह जाऊंगा
तुमसे मिलने
या बुला लूँ
यही अभी
आंखें बंद कर
खो जाऊं साथ तुम्हारे
लड़ लूँ तुमसे
फिर एक बार
छू लूँ तुम्हें
जो आज तक
कोई ना कर पाया
या शायद मैं
कितना विह्वल था तब
आज कितना शांत हूँ
बाहर से ही
मन तो आज भी
खुद से लगातार
युद्ध कर रहा है
हर क्षण
अबाध गति से
काश अब ये थक जाये
या अपने सारी शक्ति संजोकर
लड़ता रहे
यूँ ही सदा
इतने सारे प्रश्नों के उत्तर
तुम्हारे पास होंगे
तो बुला लो अब मुझे
अपने पास
मत रहने दो मुझे
यूँ उदास
एक बार सहला दो मेरा माथा
सिर्फ एक बार
तुम्हारी कोमल उँगलियों का स्पर्श
आराम दे जाता
तुमने तो हर बार मुझे
सब कुछ दिया है
उस ज़हर से
ना जाने कितनी बार
अपने कंठ को नीला किया है
सिर्फ मेरे लिए,
पर अब क्यों नहीं?

No comments:

Post a Comment